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वैज्ञानिक प्रार्थना

Thursday 24 December 2015

बुद्धत्व को शब्दों और सिद्धान्तों में नहीं बांधा जा सकता, केवल अनुभव किया जा सकता।

लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

सर्वविदित है कि तत्कालीन शाक्य गण के आर्य मुखिया/शासक/राजा शुद्धोधन के पुत्र राजकुमार सिद्धार्थ ही कालान्तर में गौतम बुद्ध के नाम से जाने गये। जिन्हें आर्य मानसिकता के लोगों द्वारा भगवान बुद्ध भी कहा जाने लगा है। इसी कारण आर्यों ने बुद्ध को आर्यों के भगवान विष्णू का अवतार भी घोषित कर दिया है। जिसके चलते बुद्ध और बुद्ध धर्म पर भी आर्यों ने अपना परोक्ष कब्जा जमा लिया है।

यही कारण है कि वर्तमान भारत में संसद द्वारा निर्मित विधि 'हिन्दू विवाह अधिनियम' की धारा 2 (1) (ख) के अनुसार समस्त बुद्धधर्मानुयाई हिन्दू विधि अर्थात् 'हिन्दू विवाह अधिनियम' से शासित होने को वैधानिक रूप से आबद्ध हैं। ऐसे में बार-बार सवाल खड़ा होता है कि क्या बुद्ध को मानने के लिये बुद्ध धर्म को अपनाना जरूरी है? क्योंकि बुद्ध धर्म का अनुयाई बनते ही, बुद्धधर्मानुयाईयों को 'हिन्दू विवाह अधिनियम' से शासित होना वैधानिक बाध्यता है।

अन्य अनेक बातों के अलावा इस एक बड़े कारण से भारत में बहुत से बुद्ध प्रेमी चाहकर भी खुद को बुद्धधर्मानुयाई नहीं कह पाते हैं। क्योंकि बुद्ध धर्म अंगीकार करते ही या बुद्धधर्मानुयाई बनते ही कानून के अनुसार 'हिन्दू विवाह अधिनियम' से शासित होने की वैधानिक बाध्यता हो जाती है। इसलिये मुझ जैसे बुद्धप्रेमी के लिये खुद को बुद्धधर्मानुयाई के बजाय, बुद्धानुयाई कहना श्रेृष्ठकर है, यद्यपि और भी अनेक कारण हैं। जिन्हें अलग से समझा जा सकता है। प्रस्तुत आलेख का मकसद बुद्धानुयाई बनने की उत्कट लालसा क्यों? इस पर प्रकाश डालना है। आखिर बुद्ध ने ऐसा क्या कहा, मानवता को ऐसा क्या दिया कि कोई भी सहज और सरल व्यक्ति बिना किसी दबाव के बुद्धानुयाई बनने को स्वत: सहमत होने लगता है। मेरी विनम्र दृष्टि में इसके निम्न प्रमुख कारण हैं:—

1. धर्म मानव का स्वभाव है : बुद्ध कहते हैं, धर्म सिद्धान्त नहीं, मानव स्वभाव है। मानव के भीतर धर्म रात—दिन बह रहा है। ऐसे में सिद्धान्तों से संचालित किसी भी धर्म को धर्म कहलाने का अधिकार नहीं। उसे धर्म मानने की जरूरत ही नहीं है। धर्म के नाम पर किसी प्रकार की मान्यताओं को ओढने या ढोने की जरूरत ही नहीं है। अपने आप में मानव का स्वभाव ही धर्म है।
2. मानो मत, जानो : बुद्ध कहते हैं, अपनी सोच को मानने के बजाय जानने की बनाओ। इस प्रकार बुद्ध वैज्ञानिक बन जाते हैं। अंधविश्वास और पोंगापंथी के स्थान पर बुद्ध मानवता के बीच विज्ञान को स्थापित करते हैं। बुद्ध ने धर्म को विज्ञान से जोड़कर धर्म को अंधभक्ति से ऊपर उठा दिया। बुद्ध ने धर्म को मानने या आस्था तक नहीं रखा, बल्कि धर्म को भी विज्ञान की भांति सतत खोज का विषय बना दिया। कहा जब तक जानों नहीं, तब तक मानों नहीं। बुद्ध कहते हैं, ठीक से जान लो और जब जान लोगे तो फिर मानने की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि जानने के बाद तो मान ही लोगे। बुद्ध वैज्ञानिक की तरह से धर्म की बात कहते हैं। इसीलिए बुद्ध नास्तिकों को भी प्रिय हैं।
3. परम्परा नहीं मौलिकता : बुद्ध मौलिकता पर जोर देते हैं, पुरानी लीक को पीटने या परम्पराओं को अपनाने पर बुद्ध का तनिक भी जोर नहीं है। इसीलिये बुद्ध किसी भी उपदेश या तथ्य को केवल इस कारण से मानने को नहीं कहते कि व​ह बात वेद या उपनिषद में लिखी है या किसी ऋषी ने उसे मानने को कहा है। बुद्ध यहां तक कहते हैं कि स्वयं उनके/बुद्ध के द्वारा कही गयी बात या उपदेश को भी केवल इसीलिये मत मान लेना कि उसे मैंने कहा है। बुद्ध कहते हैं कि इस प्रकार से परम्परा को मान लेने की प्रवृत्ति अन्धविश्वास, ढोंग और पाखण्ड को जन्म देती है। बुद्ध का कहना है कि जब तक खुद जान नहीं लो किसी बात को मानना नहीं। यह कहकर बुद्ध अपने उपदेशों और विचारों का भी अन्धानुकरण करने से इनकार करते हैं। विज्ञान भी यही कहता है।
4. दृष्टा बनने पर जोर : बुद्ध दर्शन में नहीं उलझाते, बल्कि उनका जोर खुद को, खुद का दृष्टा बनने पर है। बुद्ध दार्शनिकता में नहीं उलझाते। बुद्ध कहते हैं कि जिनके अन्दर, अपने अन्दर के प्रकाश को देखने की प्यास है, वही मेरे पास आयें। उनका अभिप्राय उपदेश नहीं ध्यान की ओर है, क्योंकि ध्यान से अन्तरमन की आंखें खुलती हैं। जब व्यक्ति खुद का दृष्टा बनकर खुद को, खुद की आंखों से देखने में सक्षम हो जाता है तो वह सारे दर्शनों और पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सत्य को देखने में समर्थ हो जाता है। इसलिये बुद्ध बाहर के प्रकाश पर जोर नहीं देते, बल्कि अपने अन्दर के प्रकाश को देखने की बात कहते हैं। अत: खुद को जानना उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता है।
5. मानवता सर्वोपरि : बुद्ध कहते है-सिद्धांत मनुष्य के लिये हैं। मनुष्य सिद्धांत के लिये नहीं। बुद्ध के लिये मानव और मानवता सर्वोच्च है। इसीलिय बुद्ध तत्कालीन वैदिक वर्णव्यवस्था और आश्रम-व्यवस्था को भी नकार देते हैं, क्यों​कि बुद्ध की दृष्टि में सिद्धान्त नहीं, मानव प्रमुख है। मानव की आजादी उनकी प्राथमिकता है। बुद्ध कहते हैं, वर्णव्यवस्था और आश्रम-व्यवस्था मानव को गुलाम बनाती है। अत: बुद्ध की दृष्टि में वर्णव्यवस्था, आश्रम-व्यवस्था जैसे मानव निर्मित सिद्धान्त मृत शरीर के समान हैं। जिनको त्यागने में ही बुद्धिमता है। यहां तक कि बुद्ध की नजर में शासक का कानून भी उतना मूल्यवान नहीं है, जितना मनुष्य है। यदि कानून सहज मानव जीवन में दखल देता है, तो उस कानून को अविलम्ब बदला जाना जरूरी है।
6. स्वप्नवादी नहीं, यथार्थवादी : बुद्ध ने सपने नहीं दिखाये, हमेशा यथार्थ पर जोर दिया, मानने पर नहीं, जानने पर जोर दिया। ध्यान और बुद्धत्व को प्राप्त होकर भी बुद्ध ने अपनी जड़ें जमीन में ही जमाएं रखी। उन्होंने मानवता के इतिहास में आकाश छुआ, लेकिन काल्पनिक सिद्धान्तों को आधार नहीं बनाया। बुद्ध स्वप्नवादी नहीं बने, बल्कि सदैव यथार्थवादी ही बने रहे। यही वजह है कि बुद्ध का प्रकाश संसार में फैला।
7. ईश्वर की नहीं, खुद की खोज : बुद्धकाल वैदिक परम्पराओं से ओतप्रोत था। अत: अनेकों बार, अनकों लोगों ने बुद्ध से ईश्वर को जानने के बारे में पूछा। लोग जानने आते थे कि ईश्वर क्या है और ईश्वर को केसे पाया जाये? बुद्ध ने हर बार, हर एक को सीधा और सपाट जवाब दिया—व्यर्थ की बातें मत पूछो। पहले ध्यान में तो उतरो, पहले अपने अंतस की चेतना को तो समझो। पहले अपनी खोज तो करो। जब खुद को जान जाओगे तो ऐसे व्यर्थ के सवाल नहीं पूछोगे।
8. अच्छा और बुरा, पाप और पुण्य : बुद्ध किसी जड़ सिद्धान्त या नियम के अनुसार जीवन जीने के बजाय मानव को बोधपूर्वक जीवन जीने की सलाह देते हैं। बुद्ध कहते हैं, जो भी काम करें बोधपूर्वक करें, होशपूर्वक क्योंकि बोधपूर्वक किया गया कार्य कभी भी बुरा नहीं हो सकता। जितने भी गलत काम या पाप किये जाते हैं, सब बोधहीनता या बेहोशी में किये जाते हैं। इस प्रकार बुद्ध ने अच्छे और बुरे के बीच के भेद को समझाने के लिये बोधपूर्वक एवं बोधहीनता के रूप में समझाया। बुद्ध की दृष्टि में प्रेम, करुणा, मैत्री, होश, जागरूकता से होशपूर्वक बोधपूर्वक किया गया हर कार्य अच्छा, श्रृेष्ठ और पुण्य है। बुद्ध की दृष्टि में क्रोध, मद, बेहोशी, मूर्छा, विवेकहीनता से बोधहीनता पूर्वक किया गया कार्य बुरा, निकृष्ट और पाप है।
9. कठिन नहीं सहजता : बुद्ध जीवन की सहजता के पक्ष में हैं, न कि असहज या कठिन या दु:खपूर्ण जीवन जीने के पक्षपाती। बुद्ध कहते हैं, कोई लक्ष्य कठिन है इस कारण वह सही ही है और इसी कारण उसे चुनोती मानकर पूरा किया जाये। यह अहंकार का भाव है। इससे अहंकार का पोषण होता है। इससे मानव जीवन में सहजता, करुणा, मैत्री समाप्त हो जाते हैं। अत: मानव जीवन का आधार सहजता, सरलता, सुगमता है मैत्रीभाव और प्राकृतिक होना चाहिये।
10. अंधानुकरण नहीं : बुद्ध कहते हैं, मैंने जो कुछ कहा है हो सकता है, उसमें कुछ सत्य से परे हो! कुछ ऐसा हो जो सहज नहीं हो। मानव जीवन के लिये उपयुक्त नहीं हो और जीवन को सरल एवं सहज बनाने में बाधक हो, तो उसे सिर्फ इसलिये कि मैंने कहा है, मानना बुद्धानुयाई होने का सबूत नहीं है। सच्चे बुद्धानुयाई को संदेह करने और स्वयं सत्य जानने का हक है। अत: जो मेरा अंधभक्त है, वह बुद्ध कहलाने का हकदार नहीं।

उपरोक्त बातों को जानने के बाद कौन होगा, जिसे बुद्ध प्रिय नहीं होगा? कौन होगा, जिसके अन्तरतम में बुद्ध का निवास नहीं होगा। दु:खद आश्चर्य भारत में बुद्धानुयाई उतने अनुयाई नहीं, जितने भारत के बाहर हैं! इसकी वजह पर विचार प्रकट किये बिना यह आलेख अधूरा ही रहेगा। मेरे विनम्र मतानुसार इसके न्मि कारण हैं :-
1. बुद्ध ने नियम और सिद्धान्तों से मुक्त सहजता तथा सरलता से जीवन जीने की बात पर जोर दिया। इसके विपरीत बुद्धधर्मानुयाईयों ने बुद्धधर्म को अनेक सिद्धान्तों में बांध दिया है। जो बुद्ध को असहज बना रहे हैं। जिन पर विस्तार से फिर कभी चर्चा की जायेगी।
2. वर्तमान भारत में बुद्धानुयाई बनने में कोई अड़चन नहीं। कोई आचरणगत बाध्यता नहीं, लेकिन पूर्वोल्लेखुनसार बुद्धधर्मानुयाई बनते ही 'हिन्दू विवाह अधिनियम' से शासित होने की वैधानिक बाध्यता, बाधक है।
3. बुद्धधर्मानुयाईयों ने बुद्धधर्म को अनेक सिद्धान्तों में बांध दिया और सरकार ने बुद्धधर्म को एक प्रकार से हिन्दू धर्म का हिस्सा या हिन्दू धर्म की शाखा बना दिया है। इन दोनों ही स्थितियों को ठीक करवाना प्रत्येक बुद्धधर्मानुयाई दायित्व का होना चाहिये।
इन हालातों में बुद्धानुयाई बनना तो किसी भी व्यक्ति के लिये सहज और सरल है, लेकिन बुद्धधर्मानुयाई बनना असहज है, क्योंकेि ​कानूनी रूप से हिन्दू लॉ से शासित होने की बाध्यता के साथ—साथ खुद को कथित बुद्धधर्मानुयाईयों द्वारा निर्मित बुद्धधर्म के कथित सिद्धान्तों की कैद में जकड़ना भी है। जो बुद्ध का मकसद कभी नहीं था।

इस सब के उपरान्त भी वर्तमान भारत में आर्यों के धार्मिक मकड़जाल और अमानवीय मनुवादी आतंक से मुक्ति के लिये गौतम बुद्ध के सहज, सरल और विज्ञान सम्मत विचारों व उपदेशों के अनुसार हमें तर्क, तथ्य तथा विज्ञान के अनुसार बोलना, आचरण करना और खुद को जानना होगा। बुद्ध धर्म सहित किसी भी बात को आंख बन्द करके मानने के बजाय, निर्भीकता पूर्वक सवाल करें, सन्देह करें और सत्य को जानने की उत्सुकता पैदा करें।
यहीं से बुद्धत्व की सीढी पर चढने की शुरूआत होती है। तदोपरान्त ध्यान की परमावस्था में उतरकर खुद, खुद के दृष्टा बनकर अपने अन्दर के प्रकाश को खुद की दृष्टि से देखने की ध्यानावस्था में प्रवेश करने पर जो आलौकिक अहसास होगा, उसी को बुद्धत्व की अवस्था कहते हैं। उसी को जीवन का सत्य या जीते जी निर्वाण या जीवन का परम सत्य या जीवन का आध्यात्मिक चरम कहते हैं। जिसे शब्दों और सिद्धान्तों में नहीं बांधा जा सकता, न हीं जिसे किसी को समझाया जा सकता, इसे तो जीकर और अनुभव करके ही जाना जा सकता।

जय भारत! जय संविधान!
अनार्य एकता जिन्दाबाद।
@डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश', राष्ट्रीय प्रमुख, हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन (भारत सरकार की विधि अ​धीन दिल्ली से रजिस्टर्ड राष्ट्रीय संगठन) वाट्स एप एवं मो. नं. 9875066111, 24.12.2015 (15.23 बजे)
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