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वैज्ञानिक प्रार्थना

Saturday, 19 December 2015

बिखरता जीवन संभाला जा सकता है-एक दूसरे के प्रति-सम्मान का भाव, निष्ठा, विश्वास, पारदर्शिता और निष्कपट स्नेह, दाम्पत्य के प्रेमरस की कुंजी एवं पुख्ता आधारशिला हैं।

बिखरता जीवन संभाला जा सकता है-एक दूसरे के प्रति-सम्मान का भाव, निष्ठा, विश्वास, पारदर्शिता और निष्कपट स्नेह, दाम्पत्य के प्रेमरस की कुंजी एवं पुख्ता आधारशिला हैं।

लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' 
विभिन्न देशों में, विभिन्न समयों पर, विभिन्न शोधकों के शोधों से यह बात अनेकों बार प्रमाणित हुई है कि-

1. हजारों सालों के वंशानुगत आचरण, अवचेतन में स्थापित जीवन जीने के मानदंडों और प्रचलित सामाजिक व्यवस्था का एक पारिणामिक सच-

"स्त्री, अपने पति या प्रेमी की बुरी आदतों और उसके चरित्र की कमजोरियों को जान लेने के बाद भी, उनकी अनदेखी कर के उसे जीवनभर चाह सकती है। उसके साथ दाम्पत्य और आत्मीय प्रेम सम्बंधों का निर्वाह कर सकने में सफल हो सकती है।"

जबकि इसके ठीक विपरीत-

2. किन्हीं अपवादों को छोड़कर, एक सामान्य पुरुष, स्त्री की व्यवहारगत कमजोरियों, बुरी आदतों और उसके हलके चरित्र को कभी सहन नहीं कर सकता। बेशक उसे इसकी कितनी भी बड़ी कीमत क्यों ना चुकानी पड़े।

परिणामस्वरूप

3. स्त्री, पुरुष को चाहते हुए भी, अपने आप के बारे में बहुत कुछ छिपाने में खुद को पारंगत समझने लगती हैं। पुरुष भी अपनी संगिनी को विश्वास पात्र, वफादार, समर्पित और सद्चरित्र मानकर उस पर गर्व करने लगता है।

लेकिन

4. जिस दिन स्त्री की हकीकत पुरुष के सामने आती है, उन दोनों के जीवन बिखर जाते हैं। स्त्री के पास सुधार के लिए शेष कुछ नहीं बचता है।

और

5. पुरुष के पास जीवन जीने का कोई कारण नहीं बचता है।

दु:खद परिणिती-

6. परिवार बिखर जाते हैं। अनेक पुरुष नशे के आदि हो जाते हैं या आत्महत्या तक कर लेते हैं। मासूम बच्चों का जीवन बर्बाद हो जाता है। जो ज़िंदा रहते हैं-पल-प्रतिपल घुट-घुट कर जीने को विवश हो जाते हैं।

अत: अब जबकि सामाजिक और पारिवारिक मूल्य विखण्डित हो रहे हैं, जिन्हें सुधारवादी बदलाव कहते हैं। बेहतर और जरूरी है, बल्कि अपरिहार्य है कि-

7. स्त्री और पुरुष या प्रेमी-युगल इस बात को समझें कि समय और हालातों के अनुसार अपने सोचने और जीने के तरीकों और आदतों में यथासम्भव सजगता लाएं और अधिक सजग तथा पारदर्शी जीवन जियें। आपसी विश्वास खोकर एक साथ और एक छत के नीचे रहते हुए-

प्रेममय,
सजग
और
सफल
जीवन की कामना असम्भव है।

अंतिम बात-
÷÷÷÷÷÷÷
स्त्री और पुरुष दोनों का सोचने का ढंग मूल रूप से मनोसामाजिक एवं आनुवांशिक समाजीकरण का परिणाम है। जिसके लिये सम्पूर्ण रूप से उनको दोषी नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन आज जबकि हम हर एक क्षेत्र में बदल रहे हैं। बदलने को तत्पर हैं। ऐसे में यह अपेक्षा की जाती है कि—
''एक दूसरे के प्रति-सम्मान का भाव, निष्ठा, विश्वास, पारदर्शिता और निष्कपट स्नेह, दाम्पत्य के प्रेमरस की कुंजी एवं पुख्ता आधारशिला हैं। अत: यह निर्णय नितांत जरूरी है कि 'आज तक हम से जो हो चुका, सो चुका या जो खो चुका, सो खो चुका। अब उसका रोना छोड़कर या उसे दुस्वप्न की भांति भुलाकर शेष बचे जीवन को तो संभाला ही जा सकता है। क्योंकि वर्तमान ही सत्य है।'
नोट : आपको यह सन्देश व्यक्तिगत रूप से नहीं, बल्कि ब्रॉड कॉस्टिंग सिस्टम के जरिये भेजा गया है। अत: यदि आपको किसी भी प्रकार की आपत्ति हो तो, कृपया अवगत करावें। आगे से आपको ऐसा कोई सन्देश नहीं भेजा जायेगा।

शुभाकांक्षी और स्नेही
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/19.12.2015

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