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वैज्ञानिक प्रार्थना

Thursday 7 October 2021

हौंसले तथा तमन्नाओं को पंख दीजिए। जिससे उड़ने की ख्वाहिश पैदा हो। बेशक उड़ न पाओ....

यदि पैरों में जान नहीं तो पहाड़ पर चढ़ने की जिद क्यों। यदि बीवी को संभाल नहीं सकते तो विवाह करने की तमन्ना क्यों? अपनी हैसियत और हिम्मत की परिधि में ही बंधे रहोगे तो जीवन नाली के कीड़ों की तरह सड़ता तथा रेंगता रहेगा। हौंसले तथा तमन्नाओं को पंख दीजिए। जिससे उड़ने की ख्वाहिश पैदा हो। बेशक उड़ न पाओ पर बिन घबराये सरपट दौड़ तो सको। जोहार।-आदिवासी ताऊ, WA 8561955619

आपका कद छोटा, रंग काला, सिर गंजा और शक्ल अनाकर्षक है, तो भी आपको अपने आप से बेपनाह मोहब्बत करनी चाहिए।

आपका कद छोटा, रंग काला, सिर गंजा और शक्ल अनाकर्षक है, तो भी आपको अपने आप से बेपनाह मोहब्बत करनी चाहिए। क्योंकि आपके लिए यही सर्वस्व है। दूसरों का सुंदर शरीर आपके किसी काम का नहीं। आपने इस शरीर को स्वस्थ रखकर, आप सुंदर शरीर के बाद भी बीमार रहने वाले को मात दे सकते हैं। जोहार। आदिवासी ताऊ, WA 8561955619

व्यक्तिगत सेवा और समाज सेवा दोनों में बहुत अंतर होता है।

06.06.2016 को मेरा बड़ा एक्सीडेंट हुआ था। जिसकी जानकारी सोशल मीडिया पर पोस्ट की गयी। मिलना तो दूर 2-4 को छोड़ किसी ने फोन तक नहीं किया। जबकि उस समय मैं सामाजिक सेवा में अब से अधिक एक्टिव एवं पापुलर था। मगर मुझे चाहने वाले न जाने कहाँ गुम हो गए। अब जब मैं अपने मूल काम (स्वास्थ्य सेवा) पर लौट आया हूँ तो मुझे चाहने और मुझ से व्यक्तिगत रूप से मिल कर मेरे जैसे अनाम व्यक्ति के दर्शन करने की चाहत रखने वाले (पेशेंट्स रूपी) मित्रों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। लेकिन खेद है, मैं Only Online सेवा करता हूँ। अब निवास पर बुलाकर सेवा करने और घण्टों गप्प लगाने हेतु समय नहीं। अब मैं बहुत बदल चुका और हर दिन तेजी से बदल रहा हूँ। यद्यपि मेरे योग्य कोई वास्तविक सामाजिक सेवा हो तो मैं हाजिर रहूंगा। जोहार। आदिवासी ताऊ, 8561955619, 30.09.2021

स्वास्थ्य से बड़ी कोई दौलत नहीं

स्वास्थ्य से बड़ी कोई दौलत नहीं, लेकिन इसकी कीमत का अहसास तब होता है, जब हम अपना स्वास्थ्य खो चुके होते हैं। जोहार।

शरीर की निरन्तर देखरेख बहुत जरूरी

 जैसा भी है, आपका शरीर ही आपकी सबसे बड़ी दौलत तथा सबसे बड़ा आलीशान महल है। अंतिम सांस तक आपको इसी में रहना है। इसलिये इसकी निरन्तर देखरेख बहुत जरूरी है। जोहार।-आदिवासी ताऊ, वाट्सएप 8561955619

माता-पिता की सेवा न कर पाने का अपराधबोध मनोरोगी बना देता है।

माता-पिता की सेवा न कर पाने का अपराधबोध मनोरोगी बना देता है। अतः बाद में पछताने और रोने से बेहतर है, समय रहते माता-पिता और परिवारजनों के प्रति कर्त्तव्यों का निर्वाह किया जाए। जोहार।

Wednesday 22 September 2021

निरोगी काया और...

निरोगी काया और बद से बदतर हालातों का धैर्यपूर्वक सामना करने की समझ, मानव जीवन के दो अनमोल तोहफे हैं। जोहार। आदिवासी ताऊ, 85619-55619, 22.09.2021

Friday 10 September 2021

सरकारी कुर्सी और पद का अहंकार

जिन लोगों को सरकारी कुर्सी का अहंकार होता है और जो पद के अहंकार में दूसरों का न मात्र अपमान करते हैं, बल्कि जानबूझकर या प्रॉपर ध्यान न देकर अहित भी करते हैं। ऐसे लोगों को कुर्सी छिन जाने पर मैंने बुढ़ापे अपमानित होते हुए तथा पिटते हुए भी देखा है। अतः सभी लोक सेवकों को सरकारी कुर्सी पर बैठकर खुद को जनता का मालिक नहीं, बल्कि खुद को जनता का सेवक (नौकर) समझकर दायित्यों का निर्वाह करें।डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणा-राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) 9875066111

Sunday 22 August 2021

तीव्र चाहत के बिना आरोग्य असम्भव

अधिकांश लोग अपनी तकलीफों का कारण नहीं जानते और कारण जानना भी नहीं चाहते हैं। कारण जानने के बजाय उनकी रुचि बीमारी का नाम जानने तथा जैसे-तैसे तुरन्त रिलीफ (राहत) पाने में होती है। जबकि 50% से अधिक लोग तो गलत खानपान तथा सोने-जागने की गलत आदतों के कारण ही बीमार रहते हैं। यही लोग आगे चलकर अनेक लाइलाज बीमारियों से ग्रसित हो जाते हैं और ताउम्र गोलियां गटकते रहते हैं। जो लोग सिर्फ रिलीफ चाहते हैं, वे कभी पूर्ण स्वस्थ हो ही नहीं सकते, क्योंकि आरोग्य उनकी चाहत है ही नहीं। बिना तीव्र चाहत के आरोग्य असम्भव है। जोहार।-आदिवासी ताऊ, WA No.: 8561955619

Saturday 21 August 2021

सोचने तथा समझने का अपना नजरिया भी बदलें।

मेरा मकसद केवल अस्वस्थ लोगों को स्वस्थ करना ही नहीं है, बल्कि मैं कोशिश करता हूं कि मुझ से व्यक्तिगत रूप से उपचार हेतु सम्पर्क करने वाले सभी लोग जिंदगी जीने का तरीका तथा जीवन में उत्पन्न होने वाले हालातों के प्रति सोचने तथा समझने का अपना नजरिया भी बदलें। जिससे आप हमेशा ऊर्जा तथा प्रफुल्लता से भरे रहें और स्वस्थ होने के बाद फिर कभी बीमार नहीं हों। यदि आप मेरी इस व्यवस्था में विश्वास करते हैं तो आपका स्वागत है। जोहार। आदिवासी ताऊ, वाट्सएप नं.: 8561955619, 21.08.2021, 20.50

Monday 16 August 2021

दुनिया की जरूरतें पूरी नहीं हो सकती।

इस दुनिया के लिये हम खुद को दफन कर दें, फिर भी दुनिया की जरूरतें पूरी नहीं हो सकती। मगर बिना खुद को वक्त दिये दुनिया तो क्या अपने परिवार तक की जरूरतें पूरी नहीं हो सकती। इसलिये सबसे पहले हर व्यक्ति को अपने आप के लिये नियमित रूप से क्वालिटी टाइम देना चाहिये, ताकि दूसरों के लिये काम आने लायक फिट और हेल्दी बने रह सकें। जोहार। आदिवासी ताऊ WA No.: 85619-55619. 16.08.2021, 19.46

Sunday 15 August 2021

जो बदलना नहीं चाहते, वे अपने परिवार पर बोझ बनकर, दवाइयों के सहारे जिंदगी को घसीटते रहेंगे।

अधिकतर लोगों की खानपान और नशे की आदतें, उन्हें बीमार बनाती हैं। 99.99% डॉक्टर सिर्फ दवाई देते हैं। इसीलिए रोगी हमेशा बीमार और डॉक्टर के ग्राहक बने रहते हैं। सर्वप्रथम मैं पेशेंट से विस्तार से बात करके, नशा छुड़वाता हूँ, खानपान की आदतें बदलवाता हूँ और व्यायाम करने को प्रेरित करता हूॅं। साथ में आदिवासी जड़ी-बूटी और पोषक तत्व देता हूँ। जरूरी होने पर काउंसलिंग भी करता हूं। जो पेशेंट खुद को बदलने को सहमत हो जाते हैं, वे 100% स्वस्थ हो जाते हैं। जो बदलना नहीं चाहते, वे अपने परिवार पर बोझ बनकर, दवाइयों के सहारे जिंदगी को घसीटते रहेंगे। निष्कर्ष: जब तक पेशेंट सहयोग न करे, उसे स्वस्थ करना मुश्किल है, क्योंकि सिर्फ दवाइयों के भरोसे रोगमुक्ति असम्भव है। जोहार। आदिवासी ताऊ, WA-8561955619. 15.08.2021, 08.53.

Thursday 8 March 2018

महिला दिवस

महिला दिवस: पुरुष द्वारा स्त्री का वस्तु की भांति उपयोग किया जाना, स्त्री का सबसे बड़ा अपमान है। स्त्री का मौन मजबूरी है।

Wednesday 7 February 2018

इंसाफ (Justice) के लिए नीयत (Intention) साफ और नीति (Policy) स्पष्ट होनी जरूरी है। (For the justice clear Intention and the policy must be clear.)

इंसाफ (Justice) के लिए नीयत (Intention) साफ और नीति (Policy) स्पष्ट होनी जरूरी है। (For the justice clear Intention and the policy must be clear.)


कितने दिन पहले स्वामी विवेकानन्द ने यह बात कही थी कि "भारत का निर्माण करना है तो ब्राह्मणवाद को पैरों तले कुचल डालो।" पता नहीं कही भी या नहीं? मान लिया जाये उन्होंने यह बात कही थी। लेकिन उनके ऐसा कहने से हुआ क्या? कुछ नहीं हुआ! ऐसे में इन बातों को वर्तमान पीढी के समक्ष दौहराने से हासिल क्या होने वाला है? जब तक ऐसे निराशाजनक, नकारात्मक और असफल विचार नयी पीढी को प्रसारित-प्रचारित होते रहेंगे, मानव मनोविज्ञान के सिद्धांत के अनुसार ब्राह्मणवाद लगातार मजबूत होकर आगे बढ़ता रहेगा। इन दिनों देखा जा रहा है कि वंचित समुदाय केवल नये-नये दुश्मन खड़े करता रहता है, लेकिन समस्याओं के समाधान पेश करने में सृजनात्मक परिश्रम नहीं करता। सवाल यह क्यों नहीं कि कोई भी किसी को क्यों कुचले? जो मुझे नहीं पसन्द, वही किसी दूसरे को क्यों मंजूर होगा? यदि हम संविधानवादी हैं तो अनुच्छेद 21 में हर एक मानव की गरिमा की कद्र करने की बात क्यों न करते? हम सौहार्द, समानता और भ्रातृत्व की बात क्यों नहीं करते? क्या हम नयी पीढ़ी को अपराधी या कट्टर या निकम्मी या हारी हुई बनाना चाहते हैं? हालात यही रहे तो नयी पीढ़ी सोशल मीडिया पर केवल हो-हल्ला करके चुप हो जाने वाली है! युवाओं का सारा गुस्सा और आक्रोश ऐसे ही जाया हो जायेगा। जबकि इंसाफ के लिये सतत बौद्धिक आंदोलनों की जरूरत होती है। जो इन हालातों में जन्म ही नहीं ले पायेंगे और समाज में बराबरी तथा इंसाफ कभी कायम ही नहीं हो पायेंगे। इंसाफ के लिए नियत साफ और नीति स्पष्ट होनी जरूरी है। एक स्पष्ट मकसद होना जरूरी है, चाहे सामने भाई हो या दुश्मन?-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, 9875066111, 07.02.2018

Saturday 28 October 2017

व्यवसाय, भावनाएं और राजनीति (Business, Emotion & Politics)

*व्यवसाय, भावनाएं और राजनीति*
*Business, Emotion & Politics*

ऐसा माना जाता है कि अगर व्यवसाय पर भावनाएं प्रभावी होंगी, तो व्यवसाय बर्बाद हो जाएगा क्योंकि दुष्ट लोग भावुक व्यापारियों की भावनाओं का अनुचित लाभ उठाने का मौका नहीं छोड़ेंगे। It is believed that If emotions on the business will effective, the business will be in vain because the evil people will not miss the opportunity to get an unfair advantage from emotional businessmen. इन दिनों राजनीति भी व्यवसाय हो गयी है। अत: राजनेताओं से क्या उम्मीद की जा सकती है? Politics has become a business these days. So what can be expected from politicians? -डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश', राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, 9875066111, 28.10.17

Monday 23 October 2017

संविधान का उल्लंधन क्यों?

जिन आदेशों, नियमों, प्रावधानों, कानूनों, अधिनियमों उल्लंघन दण्डनीय नहीं होता, उनका पालन नहीं होता। संविधान के उल्लंघन का यही मूल कारण है। 

Sunday 22 October 2017

जेहनी जहरखुरानी


बस या रेल-यात्रा के दौरान जब कोई अनजान व्यक्ति लुभावनी और मीठी-मीठी बातें करके आत्मीयता दर्शाये और खाने-पीने में बेहोशी या नशे का पदार्थ मिलाकर आपका सब कुछ लूट ले तो इसे 'जहरखुरानी' कहा जाता है। जिसके लिये दोषी व्यक्ति के विरुद्ध पुलिस द्वारा दण्डात्मक कार्यवाही की जाती है।

इसके विपरीत जब कोई चतुर-चालाक व्यक्ति, राजनेता, ढोंगी संत, कथित समाज उद्धारक और, या इनके अंधभक्त झूठे-सच्चे और मनगढंथ किस्से-कहानियों, लच्छेदार भाषण, लुभावने नारे तथा सम्मोहक जुमलों के जरिये आम सभाओं या कैडर-कैम्पस में भोले-भाले लोगों को कुछ समय के लिये या जीवनभर के लिये दिमांगी तौर पर सम्मोहित या गुमराह करके उनका मत और समर्थन हासिल कर लें तो इसे मैं डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' 'जेहनी जहरखुरानी' या दिमांगी बेहोशी का अपराध मानता हूं।

यह जहरखुरानी से भी अधिक गम्भीर अपराध है। मगर इसके लिये कानून में कोई सजा मुकर्रर नहीं है। अत: सबसे पहले इस जेहनी जहरखुरानी से बचें-बचायें। द्वितीय यदि सच बोलने की हिम्मत हो तो और जेहनी जहरखुरानी के अपराधियों को सजा दिलवाने के लिये दण्डात्मक कानूनी प्रावधान बनाने की मांग करें।-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश', राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन और राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS)-9875066111, 22.10.2017, Jaipur, Rajasthan


Monday 17 July 2017

सुख और दु:ख का राज है: चिन्तन पद्धति और विचारशैली

सुख और दु:ख का राज है: चिन्तन पद्धति और विचारशैली

विचार उपहार: अनेक बार हम देखते हैं कि अनैतिक, अधर्मी, झूठे, क्रूर और आपराधिक कुकृत्यों में लिप्त अनेक लोग सुखी, समृद्ध, स्वस्थ तथा समृद्ध जीवन जीते हैं। इसके विपरीत अच्छे, सृहृदयी, दयालु, नैतिक और धार्मिक लोग अनकों बीमारियों, विपदाओं, मानसिक, शारीरिक और आर्थिक समस्यायें तथा यातनायें झेलते रहते हैं! आखिर क्यों? इस क्यों का जवाब हमारी चिन्तन पद्धति और विचारशैली में अन्तर्निहित है। जो अवचेतन मन को प्रभावित करती है।

सेवासुत डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
M & WA No.: 9875066111/170717

Sunday 16 July 2017

विचार, चिन्तन और सोचने का अन्दाज

विचार, चिन्तन और सोचने का अन्दाज

प्रकृति का उपहार हमारा जीवन अमूल्य है, इसे जीने योग्य बनाने के लिये हमें लगातार, सही और सकारात्मक प्रयास करने होते हैं। जैसे—
हमारे जाग्रत विचार और चिन्तन, हमारे अवचेतन/सुसुप्त मन में स्थापित हो जाते हैं। कुछ समय बाद यही विचार हमारे जाग्रत विचारों को संचालित करने लगते हैं। अत: हम हमारे अवचेतन मन के गहरे तल पर जैसा सोचते हैं, हमारा सम्पूर्ण जीवन वैसा ही बन जाता है। इसलिये हमें जाग्रत अवस्था में अपने विचार, चिन्तन और सोचने के अन्दाज पर ध्यान देना होगा।
सेवासुत डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
M & WA No.: 9875066111/160717

Tuesday 4 October 2016

ऐसे निर्दयी रिश्तों और समाज का मूल्य क्या है?

लेखक : सेवासुत डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
हमारे समाज में बात-बात पर रिश्तों, नैतिकता, संस्कारों और संस्कृति की दुहाई दी जाती है। जिनकी आड़ में अकसर खुनकर नजर आने वाली हकीकत और सत्य से मुख मोड़ लिया जाता है। जबकि समाजिक और खूनी रिश्तों का असली चेहरा अत्यन्त विकृत हो चुका है। आत्मीय रक्त सम्बन्धों में असंवेदनशीलता/ Insensibility/Non-Sensitivity और उथलापन/Shallowness अब बहुत आम बात हो चुकी है। यदि हम अपने आसपास सतर्क और पैनी दृष्टि से अवलोकन करें तो एक नहीं कई सौ ऐसे क्रूर उदाहरण देखने को मिल जायेंगे। जिन पर सहजता से सार्वजनिक रूप से बात तक नहीं की जा सकती। कुछ आँखों देखे हर जगह देखे जा सकने वाले उदाहरण :—
1. अपने पूर्वाग्रहों के चलते बेटे अपने ही पिता की हत्या करने को उद्यत/prepared रहते हैं। मारपीट आम बात बन चुकी है। अनेक बार पिता की हत्या तक कर दी जाती हैं।

2. पिता द्वारा अपने ही बेटों में से किसी एक कमजोर बेटे के साथ साशय/intentionally और क्रूरतापूर्ण विभेद किया जाता है। जिसकी कीमत वह जीवनभर चुकाने को विवश हो जाता है।
3. रिश्वत तथा उच्च पद की ताकत से मदमस्त कुछ भाईयों द्वारा अपने से कमजोर भाई या भाईयों के साथ सरेआम अपमान, विभेद तथा नाइंसाफी की जाती है।
उपरोक्त हालातों में आर्थिक रूप से कमजोर और उच्च-पदस्थ सक्षम भाईयों, पिता, बेटों के आतंक का दुष्परिणाम, कमजोर और उत्पीड़ितों के लिये मानसिक विषाद, तनाव और अनेक मामलों में आत्महत्या की घटनाओं तक में देखने-सुनने को मिलता है। इससे भी दुखद यह है कि ऐसी अमानवीय तथा आपराधिक घटनाओं को हम, सभ्य समाज के सभ्य लोग सिर्फ छोटी सी घटना और, या खबर मानकर अनदेखी करते रहते हैं, जबकि ऐसी घटनाएं ही समाज और समाज के ताने-बाने का ध्वस्त कर रहती हैं। ऐसी अनदेखी ही आत्मीय रिश्तों को बेमौत मार देती हैं। कितने ही पुत्र, पिता और भाई आत्मग्लानी, तनाव, रुदन और आत्मघात के शिकार हो रहे हैं। बावजूद इसके ऐसे मामले सूचना क्रान्ति के वर्तमान युग में भी दबे-छिपे रहते हैं, क्योंकि आत्मीय रिश्तों को किसी भी तरह से बचाने की जद्दो-जहद में इस प्रकार की अन्यायपूर्ण घटनाएं चाहकर भी व्यथित पक्ष द्वारा औपचारिक तौर पर सार्वजनिक रूप उजागर नहीं की जाती हैं। यद्यपि उत्पीड़क और उत्पीड़ित दोनों ही पक्षों के बारे में आस-पास के लोग और सभी रिश्तेदार सबकुछ जानते हुए भी मौन साधे रहते हैं। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि व्यथित और उत्पीड़ित पक्ष के लिये ऐसे निर्दयी रिश्तों और समाज का मूल्य क्या है?
लेखक : सेवासुत डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मोबाईल एवं वाट्स एप नं. : 9875066111

Wednesday 2 March 2016

आत्मीय मित्र समाधान सिद्ध होते हैं।

आत्मीय मित्र समाधान सिद्ध होते हैं।
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मानव जीवन अपने आप में कठिन से कठिन परीक्षा है। जिसमें अनेक बार व्यक्ति को अनचाहे और अपवित्र समझोते करने होते/पड़ते हैं। दिल में बसने वाले और दिमांग में उथल-पुथल मचाने वाले। दो प्रकार के लोग इस जीवन में अपना-अपना विशेष महत्व रखते हैं। फिर भी इस बात को स्वीकारना होगा कि आज के समाज ने जीवन को अनेक क्षेत्रों में बेहद सरल और आसान बनाया है, लेकिन समाज ने रिश्तों को और रिश्तों ने जीवन को अत्यधिक कठिन बना दिया है। अनेक बार लगता है, समाज अत्यधिक जरूरी है और अनेक बार लगता है कि असली दिक्कत यह समाज का तानाबाना ही है। असंवेदनशील, चालाक और व्यावसायिक मानसिकता के लोगों पर इसका कोई असर नहीं होता, लेकिन रिश्तों का अंतर्द्वंद्व संवेदनशील मनुष्य को न जीने देता है और न मरने देता है। आदिकाल में जब कभी व्यक्ति अत्यधिक परेशानियों और तनावों का सामना कर रहा होगा, सम्भवत: तब हालातों से निपटने या लड़ने के लिए ही उसने आत्मीय मित्रों की खोज की होगी या जिस किसी ने उन हालातों में मदद की होगी, मित्र बन गए होंगे। क्योंकि वर्तमान समाज के हालात इस बात के गवाह हैं कि ऐसे विकट हालातों में मित्र ही जीवन को जीने योग्य बनाते हैं। रिश्ते भी सामाजिक जीवन की अनिवार्यता बन चुके हैं, यद्यपि आज के दौर में रिश्ते ही तनाव, दुःख और अनेक बीमारियों के कारण बन गए हैं। रिश्ते अनेक बार नासूर बन जाते हैं और जीवनभर रिसते रहते हैं। रिश्तों के कारण सामाजिक और असामाजिक ये दो शब्द जब कभी व्यवहार और जीवन में टकराते हैं, व्यक्ति बुरी तरह से कराह उठता है, टूट जाता है। ऐसे वक्त में मित्र ही असली और सच्चे सहारा बनते हैं। मित्र ही अमृत की बरसा करते हैं। एक समय था, जब मनुष्य रिश्तेदार और सम्बंधियों तक ही सीमित हुआ करता था, लेकिन आधुनिक युग में परिभाषाएं बदल गयी हैं। व्यक्ति का कार्यक्षेत्र बढ़ गया है। परिवार और रिश्तों से बहुत दूर उसे नये क्षेत्रों में नयी-नयी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जिनमें परिवार और रिश्तों तक सिमटे लोग कोई सहयोग नहीं कर पाते। इसके अलावा आधुनिक युग की भागमभाग की जिंदगी में व्यक्ति जब तनाव और विषाद के दौर से गुजरता है, जब रिश्तों के रिसते हुए दर्द से मुक़ाबिल होता है तो ऐसे समय में उसे भावनात्मक उपचार की जरूरत होती, जिससे कि उसका आत्मबल और आत्मविश्वास कमजोर नहीं होने पाये। ऐसे नाजुक वक्त पर अनेक रिश्तेदार और खोखले लोग केवल सहानुभूतियों की बरसात करते हैं, जबकि इस अवस्था में सच्चे और आत्मीय मित्र ही समाधान सिद्ध होते हैं। ऐसे मित्र हालातों से सफलतापूर्वक लड़ने और जीवन को जीने योग्य बनाने में अद्भुत और अकल्पनीय योगदान करते हैं। जिन लोगों के जीवन में ऐसे सच्चे मित्र हों, उन्हें सौभाग्यशाली कहा जा सकता है। जिस किसी के जीवन में ऐसे मित्र हैं, समझें कि वे ही वास्तविक धनवान हैं। ऐसे सच्चे मित्र सभी के जीवन में हों, मेरी यही कामना है। लेकिन इस मित्रता के रिश्ते के प्रति ईमानदारी और सच्चाई बहुत जरूरी है। जरा सी भ्रान्ति अनेक बार मुश्किल खड़ी कर सकती है, यद्यपि निस्वार्थ, सच्चे और गहरे मित्रता के रिश्तों की मजबूत नींव को हिलाना आसान नहीं होता।
---निरंकुश आवाज---जारी----

1- "भय और आलस्य जीवन के कैंसर हैं। कदम-कदम पर जिनका पोषण करते हैं, हमारे अपने लोग।"
2- "क्या हृदय का ऑपरेशन किसी लुहार से करवाना उचित होगा? आपको मेरा यह सवाल मूर्खतापूर्ण लग रहा होगा। लेकिन भारत में इससे भी खतरनाक मूर्खताएं समाज में भी बदस्तूर जारी हैं।"
उक्त विषयों पर-विस्तार से फिर कभी।
जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी सब एक समान।।
लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/02.03.2016/ 06.30 AM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोशिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और दाम्पत्य विवाद सलाहकार।

Tuesday 19 January 2016

'यौन—शिक्षा' और 'फैमिली काउंसलिंग'

'यौन—शिक्षा' और 'फैमली काउंसलिंग'
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' 
एक लेखिका का कहना है कि—''लड़की कोई सेक्सुअल ऑब्जेट नहीं है।'' मेरी दृष्टि में इस वाक्य का दूसरा अर्थ यह भी है कि लेखिका उक्त पंक्ति को लिखने से पहले यह मानती हैं कि वर्तमान में पुरुषों की नजर में—''लड़की सेक्सुअल ऑब्जेट है।'' अन्यथा उनको यह लिखने की क्यों जरूरत होती कि—''अंत में केवल इतना कहना चाहती हूँ कि लड़की कोई सेक्सुअल ऑब्जेट नहीं है। आप लड़कियों की इज्जत करना सीखो।''
क्या ऐसा लिखने मात्र से और कुछ लोगों द्वारा इस बारे में सहमति व्यक्त करने मात्र से लड़की सेक्सुअल आॅब्जेक्ट नहीं रहेगी? यदि ऐसा हुआ होता तो स्त्री और पुरुष के सम्बन्धों और हालातों में कभी का आमूलचूल बदलाव आ चुका होता। यह विषय इतना सरल और आसान नहीं है, जितना कि आम सुधारवादी और अनेक महिलाएं समझते हैं।
इस प्रकार की समस्याओं के समाधान के लिये सबसे पहले हमें मानवता के इतिहास में उन कारणों को खंगालना होगा, जिनके कारण ''लड़की सेक्सुअल ऑब्जेट बन चुकी या बना दी गयी है।'' अनेक शोध और अध्ययनों ये प्रमाणित हुआ है कि बहुत बड़ी संख्या में लड़की/स्त्री खुद ही अपने आप को 'सेक्सुअल ऑब्जेट' मानती रही हैं। आज भी मानती हैं। स्त्री अपने आपको एक मानवी के बजाय, अपनी योनिक पहचान के रूप में, पहचाने जाने की अधिक अपेक्षा करती हैं।

ऐसे में सबसे पहले बड़ा और महत्वपूर्ण विचारणीय सवाल तो यही है कि स्त्री और पुरुष की ऐसी मनोस्थिति निर्मित ही क्यों हुई? हमें पहले इस सवाल का समाधान तलाशना होगा। जब तक हम इस विषय से जुड़े मूलभूत कारणों को नहीं तलाशेंगे और तब तक हम समस्या का सच्चा और स्थायी समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकते।
केवल उथली बातों से कुछ भी नहीं हो सकता। हम पुरुष को सजा देकर कारावास में डाल सकते हैं। समग्र समाज के रूप में हम पुरुष की निन्दा और भर्त्सना कर सकते हैं। पुरुष की मानसिकता की निन्दा में आक्रामक लेख और कविताएं लिख सकते हैं। पुरुषों के विरुद्ध जनान्दोलन कर सकते हैं। नये साहित्य की रचना कर सकते हैं, लेकिन ऐसा करने से ही यदि इस समस्या का समाधान हुआ होता तो कभी का हो गया होता।
कड़वी सच्चाई यह है कि इतने साधारण तरीकों से हम इस समस्या का समाधान नहीं कर सकते। वास्तव में यह समस्या बहुत बड़ी और गहरी है। इसके कारण अनेकों स्त्रियों का जीवन, जीने योग्य नहीं रह गया है।
विकृत कही और समझी जाने वाली यौनिक मानसिकता का मूल कारण स्त्री और पुरुष के समाजीकरण में समाहित है। समस्या के कारण हजारों सालों से स्त्री और पुरुष के लिये निर्मित मनोविज्ञान में समाहित है। समस्या स्त्री—पुरुष के गहरे अवचेतन में स्थापित है। समस्या स्त्री और पुरुष के लिये अच्छी या बुरी बना दी गयी दैनिक व्यवहारगत अवधारणाओं में समाहित है। समस्या का बहुत बड़ा हिस्सा सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक (कु) संस्कारों में भी समाहित है।
अत: इस विषय पर लगातार गवेषणात्मक अध्ययन, विवेचन और निष्कर्ष निकालकर, समग्र समाज को योजनाबद्ध तरीके से बदलाव लाने की जरूरत है, लेकिन ऐसा करने के लिये अग्रसर होना तो दूर, भारतीय समाज इस विषय में सोचने और बात करने तक को तैयार नहीं है!

इसके उलट अनेक विकसित देशों और खुले समाजों में 'फैमली कांउसलिंग' के जरिये इस क्षेत्र में बड़ी सफलता अर्जित की जा चुकी हैं। यूरोप और अमेरिका में जगह—जगह 'फैमली कांउसलिंग' क्लिीनिक संचालित होते हैं। वहां 'फैमली काउंसलिंग' महत्वूपर्ण व्यवसाय और लोगों की जरूरत बन चुका है। भारतीय संदर्भ में बात की जाये तो 'यौन—शिक्षा' और 'फैमली काउंसलिंग' महत्वपूर्ण कदम सिद्ध हो सकता है। दु:खद पहलु यह है कि इस प्रकार के सुधारों का वही लोग और उनकी संविधानेत्तर सत्ता सम्पन्न 'सांस्कृतिक पुलिस' विरोध करती हैं, जिनके द्वारा निर्मित सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक कुसंस्कारों में समस्या के मौलिक कारण समाहित है।-लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'—फैमिली काउंसलर, 9875066111, baasoffice@gmail.com

Thursday 24 December 2015

बुद्धत्व को शब्दों और सिद्धान्तों में नहीं बांधा जा सकता, केवल अनुभव किया जा सकता।

लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

सर्वविदित है कि तत्कालीन शाक्य गण के आर्य मुखिया/शासक/राजा शुद्धोधन के पुत्र राजकुमार सिद्धार्थ ही कालान्तर में गौतम बुद्ध के नाम से जाने गये। जिन्हें आर्य मानसिकता के लोगों द्वारा भगवान बुद्ध भी कहा जाने लगा है। इसी कारण आर्यों ने बुद्ध को आर्यों के भगवान विष्णू का अवतार भी घोषित कर दिया है। जिसके चलते बुद्ध और बुद्ध धर्म पर भी आर्यों ने अपना परोक्ष कब्जा जमा लिया है।

यही कारण है कि वर्तमान भारत में संसद द्वारा निर्मित विधि 'हिन्दू विवाह अधिनियम' की धारा 2 (1) (ख) के अनुसार समस्त बुद्धधर्मानुयाई हिन्दू विधि अर्थात् 'हिन्दू विवाह अधिनियम' से शासित होने को वैधानिक रूप से आबद्ध हैं। ऐसे में बार-बार सवाल खड़ा होता है कि क्या बुद्ध को मानने के लिये बुद्ध धर्म को अपनाना जरूरी है? क्योंकि बुद्ध धर्म का अनुयाई बनते ही, बुद्धधर्मानुयाईयों को 'हिन्दू विवाह अधिनियम' से शासित होना वैधानिक बाध्यता है।

अन्य अनेक बातों के अलावा इस एक बड़े कारण से भारत में बहुत से बुद्ध प्रेमी चाहकर भी खुद को बुद्धधर्मानुयाई नहीं कह पाते हैं। क्योंकि बुद्ध धर्म अंगीकार करते ही या बुद्धधर्मानुयाई बनते ही कानून के अनुसार 'हिन्दू विवाह अधिनियम' से शासित होने की वैधानिक बाध्यता हो जाती है। इसलिये मुझ जैसे बुद्धप्रेमी के लिये खुद को बुद्धधर्मानुयाई के बजाय, बुद्धानुयाई कहना श्रेृष्ठकर है, यद्यपि और भी अनेक कारण हैं। जिन्हें अलग से समझा जा सकता है। प्रस्तुत आलेख का मकसद बुद्धानुयाई बनने की उत्कट लालसा क्यों? इस पर प्रकाश डालना है। आखिर बुद्ध ने ऐसा क्या कहा, मानवता को ऐसा क्या दिया कि कोई भी सहज और सरल व्यक्ति बिना किसी दबाव के बुद्धानुयाई बनने को स्वत: सहमत होने लगता है। मेरी विनम्र दृष्टि में इसके निम्न प्रमुख कारण हैं:—

1. धर्म मानव का स्वभाव है : बुद्ध कहते हैं, धर्म सिद्धान्त नहीं, मानव स्वभाव है। मानव के भीतर धर्म रात—दिन बह रहा है। ऐसे में सिद्धान्तों से संचालित किसी भी धर्म को धर्म कहलाने का अधिकार नहीं। उसे धर्म मानने की जरूरत ही नहीं है। धर्म के नाम पर किसी प्रकार की मान्यताओं को ओढने या ढोने की जरूरत ही नहीं है। अपने आप में मानव का स्वभाव ही धर्म है।
2. मानो मत, जानो : बुद्ध कहते हैं, अपनी सोच को मानने के बजाय जानने की बनाओ। इस प्रकार बुद्ध वैज्ञानिक बन जाते हैं। अंधविश्वास और पोंगापंथी के स्थान पर बुद्ध मानवता के बीच विज्ञान को स्थापित करते हैं। बुद्ध ने धर्म को विज्ञान से जोड़कर धर्म को अंधभक्ति से ऊपर उठा दिया। बुद्ध ने धर्म को मानने या आस्था तक नहीं रखा, बल्कि धर्म को भी विज्ञान की भांति सतत खोज का विषय बना दिया। कहा जब तक जानों नहीं, तब तक मानों नहीं। बुद्ध कहते हैं, ठीक से जान लो और जब जान लोगे तो फिर मानने की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि जानने के बाद तो मान ही लोगे। बुद्ध वैज्ञानिक की तरह से धर्म की बात कहते हैं। इसीलिए बुद्ध नास्तिकों को भी प्रिय हैं।
3. परम्परा नहीं मौलिकता : बुद्ध मौलिकता पर जोर देते हैं, पुरानी लीक को पीटने या परम्पराओं को अपनाने पर बुद्ध का तनिक भी जोर नहीं है। इसीलिये बुद्ध किसी भी उपदेश या तथ्य को केवल इस कारण से मानने को नहीं कहते कि व​ह बात वेद या उपनिषद में लिखी है या किसी ऋषी ने उसे मानने को कहा है। बुद्ध यहां तक कहते हैं कि स्वयं उनके/बुद्ध के द्वारा कही गयी बात या उपदेश को भी केवल इसीलिये मत मान लेना कि उसे मैंने कहा है। बुद्ध कहते हैं कि इस प्रकार से परम्परा को मान लेने की प्रवृत्ति अन्धविश्वास, ढोंग और पाखण्ड को जन्म देती है। बुद्ध का कहना है कि जब तक खुद जान नहीं लो किसी बात को मानना नहीं। यह कहकर बुद्ध अपने उपदेशों और विचारों का भी अन्धानुकरण करने से इनकार करते हैं। विज्ञान भी यही कहता है।
4. दृष्टा बनने पर जोर : बुद्ध दर्शन में नहीं उलझाते, बल्कि उनका जोर खुद को, खुद का दृष्टा बनने पर है। बुद्ध दार्शनिकता में नहीं उलझाते। बुद्ध कहते हैं कि जिनके अन्दर, अपने अन्दर के प्रकाश को देखने की प्यास है, वही मेरे पास आयें। उनका अभिप्राय उपदेश नहीं ध्यान की ओर है, क्योंकि ध्यान से अन्तरमन की आंखें खुलती हैं। जब व्यक्ति खुद का दृष्टा बनकर खुद को, खुद की आंखों से देखने में सक्षम हो जाता है तो वह सारे दर्शनों और पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सत्य को देखने में समर्थ हो जाता है। इसलिये बुद्ध बाहर के प्रकाश पर जोर नहीं देते, बल्कि अपने अन्दर के प्रकाश को देखने की बात कहते हैं। अत: खुद को जानना उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता है।
5. मानवता सर्वोपरि : बुद्ध कहते है-सिद्धांत मनुष्य के लिये हैं। मनुष्य सिद्धांत के लिये नहीं। बुद्ध के लिये मानव और मानवता सर्वोच्च है। इसीलिय बुद्ध तत्कालीन वैदिक वर्णव्यवस्था और आश्रम-व्यवस्था को भी नकार देते हैं, क्यों​कि बुद्ध की दृष्टि में सिद्धान्त नहीं, मानव प्रमुख है। मानव की आजादी उनकी प्राथमिकता है। बुद्ध कहते हैं, वर्णव्यवस्था और आश्रम-व्यवस्था मानव को गुलाम बनाती है। अत: बुद्ध की दृष्टि में वर्णव्यवस्था, आश्रम-व्यवस्था जैसे मानव निर्मित सिद्धान्त मृत शरीर के समान हैं। जिनको त्यागने में ही बुद्धिमता है। यहां तक कि बुद्ध की नजर में शासक का कानून भी उतना मूल्यवान नहीं है, जितना मनुष्य है। यदि कानून सहज मानव जीवन में दखल देता है, तो उस कानून को अविलम्ब बदला जाना जरूरी है।
6. स्वप्नवादी नहीं, यथार्थवादी : बुद्ध ने सपने नहीं दिखाये, हमेशा यथार्थ पर जोर दिया, मानने पर नहीं, जानने पर जोर दिया। ध्यान और बुद्धत्व को प्राप्त होकर भी बुद्ध ने अपनी जड़ें जमीन में ही जमाएं रखी। उन्होंने मानवता के इतिहास में आकाश छुआ, लेकिन काल्पनिक सिद्धान्तों को आधार नहीं बनाया। बुद्ध स्वप्नवादी नहीं बने, बल्कि सदैव यथार्थवादी ही बने रहे। यही वजह है कि बुद्ध का प्रकाश संसार में फैला।
7. ईश्वर की नहीं, खुद की खोज : बुद्धकाल वैदिक परम्पराओं से ओतप्रोत था। अत: अनेकों बार, अनकों लोगों ने बुद्ध से ईश्वर को जानने के बारे में पूछा। लोग जानने आते थे कि ईश्वर क्या है और ईश्वर को केसे पाया जाये? बुद्ध ने हर बार, हर एक को सीधा और सपाट जवाब दिया—व्यर्थ की बातें मत पूछो। पहले ध्यान में तो उतरो, पहले अपने अंतस की चेतना को तो समझो। पहले अपनी खोज तो करो। जब खुद को जान जाओगे तो ऐसे व्यर्थ के सवाल नहीं पूछोगे।
8. अच्छा और बुरा, पाप और पुण्य : बुद्ध किसी जड़ सिद्धान्त या नियम के अनुसार जीवन जीने के बजाय मानव को बोधपूर्वक जीवन जीने की सलाह देते हैं। बुद्ध कहते हैं, जो भी काम करें बोधपूर्वक करें, होशपूर्वक क्योंकि बोधपूर्वक किया गया कार्य कभी भी बुरा नहीं हो सकता। जितने भी गलत काम या पाप किये जाते हैं, सब बोधहीनता या बेहोशी में किये जाते हैं। इस प्रकार बुद्ध ने अच्छे और बुरे के बीच के भेद को समझाने के लिये बोधपूर्वक एवं बोधहीनता के रूप में समझाया। बुद्ध की दृष्टि में प्रेम, करुणा, मैत्री, होश, जागरूकता से होशपूर्वक बोधपूर्वक किया गया हर कार्य अच्छा, श्रृेष्ठ और पुण्य है। बुद्ध की दृष्टि में क्रोध, मद, बेहोशी, मूर्छा, विवेकहीनता से बोधहीनता पूर्वक किया गया कार्य बुरा, निकृष्ट और पाप है।
9. कठिन नहीं सहजता : बुद्ध जीवन की सहजता के पक्ष में हैं, न कि असहज या कठिन या दु:खपूर्ण जीवन जीने के पक्षपाती। बुद्ध कहते हैं, कोई लक्ष्य कठिन है इस कारण वह सही ही है और इसी कारण उसे चुनोती मानकर पूरा किया जाये। यह अहंकार का भाव है। इससे अहंकार का पोषण होता है। इससे मानव जीवन में सहजता, करुणा, मैत्री समाप्त हो जाते हैं। अत: मानव जीवन का आधार सहजता, सरलता, सुगमता है मैत्रीभाव और प्राकृतिक होना चाहिये।
10. अंधानुकरण नहीं : बुद्ध कहते हैं, मैंने जो कुछ कहा है हो सकता है, उसमें कुछ सत्य से परे हो! कुछ ऐसा हो जो सहज नहीं हो। मानव जीवन के लिये उपयुक्त नहीं हो और जीवन को सरल एवं सहज बनाने में बाधक हो, तो उसे सिर्फ इसलिये कि मैंने कहा है, मानना बुद्धानुयाई होने का सबूत नहीं है। सच्चे बुद्धानुयाई को संदेह करने और स्वयं सत्य जानने का हक है। अत: जो मेरा अंधभक्त है, वह बुद्ध कहलाने का हकदार नहीं।

उपरोक्त बातों को जानने के बाद कौन होगा, जिसे बुद्ध प्रिय नहीं होगा? कौन होगा, जिसके अन्तरतम में बुद्ध का निवास नहीं होगा। दु:खद आश्चर्य भारत में बुद्धानुयाई उतने अनुयाई नहीं, जितने भारत के बाहर हैं! इसकी वजह पर विचार प्रकट किये बिना यह आलेख अधूरा ही रहेगा। मेरे विनम्र मतानुसार इसके न्मि कारण हैं :-
1. बुद्ध ने नियम और सिद्धान्तों से मुक्त सहजता तथा सरलता से जीवन जीने की बात पर जोर दिया। इसके विपरीत बुद्धधर्मानुयाईयों ने बुद्धधर्म को अनेक सिद्धान्तों में बांध दिया है। जो बुद्ध को असहज बना रहे हैं। जिन पर विस्तार से फिर कभी चर्चा की जायेगी।
2. वर्तमान भारत में बुद्धानुयाई बनने में कोई अड़चन नहीं। कोई आचरणगत बाध्यता नहीं, लेकिन पूर्वोल्लेखुनसार बुद्धधर्मानुयाई बनते ही 'हिन्दू विवाह अधिनियम' से शासित होने की वैधानिक बाध्यता, बाधक है।
3. बुद्धधर्मानुयाईयों ने बुद्धधर्म को अनेक सिद्धान्तों में बांध दिया और सरकार ने बुद्धधर्म को एक प्रकार से हिन्दू धर्म का हिस्सा या हिन्दू धर्म की शाखा बना दिया है। इन दोनों ही स्थितियों को ठीक करवाना प्रत्येक बुद्धधर्मानुयाई दायित्व का होना चाहिये।
इन हालातों में बुद्धानुयाई बनना तो किसी भी व्यक्ति के लिये सहज और सरल है, लेकिन बुद्धधर्मानुयाई बनना असहज है, क्योंकेि ​कानूनी रूप से हिन्दू लॉ से शासित होने की बाध्यता के साथ—साथ खुद को कथित बुद्धधर्मानुयाईयों द्वारा निर्मित बुद्धधर्म के कथित सिद्धान्तों की कैद में जकड़ना भी है। जो बुद्ध का मकसद कभी नहीं था।

इस सब के उपरान्त भी वर्तमान भारत में आर्यों के धार्मिक मकड़जाल और अमानवीय मनुवादी आतंक से मुक्ति के लिये गौतम बुद्ध के सहज, सरल और विज्ञान सम्मत विचारों व उपदेशों के अनुसार हमें तर्क, तथ्य तथा विज्ञान के अनुसार बोलना, आचरण करना और खुद को जानना होगा। बुद्ध धर्म सहित किसी भी बात को आंख बन्द करके मानने के बजाय, निर्भीकता पूर्वक सवाल करें, सन्देह करें और सत्य को जानने की उत्सुकता पैदा करें।
यहीं से बुद्धत्व की सीढी पर चढने की शुरूआत होती है। तदोपरान्त ध्यान की परमावस्था में उतरकर खुद, खुद के दृष्टा बनकर अपने अन्दर के प्रकाश को खुद की दृष्टि से देखने की ध्यानावस्था में प्रवेश करने पर जो आलौकिक अहसास होगा, उसी को बुद्धत्व की अवस्था कहते हैं। उसी को जीवन का सत्य या जीते जी निर्वाण या जीवन का परम सत्य या जीवन का आध्यात्मिक चरम कहते हैं। जिसे शब्दों और सिद्धान्तों में नहीं बांधा जा सकता, न हीं जिसे किसी को समझाया जा सकता, इसे तो जीकर और अनुभव करके ही जाना जा सकता।

जय भारत! जय संविधान!
अनार्य एकता जिन्दाबाद।
@डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश', राष्ट्रीय प्रमुख, हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन (भारत सरकार की विधि अ​धीन दिल्ली से रजिस्टर्ड राष्ट्रीय संगठन) वाट्स एप एवं मो. नं. 9875066111, 24.12.2015 (15.23 बजे)
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Saturday 19 December 2015

बिखरता जीवन संभाला जा सकता है-एक दूसरे के प्रति-सम्मान का भाव, निष्ठा, विश्वास, पारदर्शिता और निष्कपट स्नेह, दाम्पत्य के प्रेमरस की कुंजी एवं पुख्ता आधारशिला हैं।

बिखरता जीवन संभाला जा सकता है-एक दूसरे के प्रति-सम्मान का भाव, निष्ठा, विश्वास, पारदर्शिता और निष्कपट स्नेह, दाम्पत्य के प्रेमरस की कुंजी एवं पुख्ता आधारशिला हैं।

लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' 
विभिन्न देशों में, विभिन्न समयों पर, विभिन्न शोधकों के शोधों से यह बात अनेकों बार प्रमाणित हुई है कि-

1. हजारों सालों के वंशानुगत आचरण, अवचेतन में स्थापित जीवन जीने के मानदंडों और प्रचलित सामाजिक व्यवस्था का एक पारिणामिक सच-

"स्त्री, अपने पति या प्रेमी की बुरी आदतों और उसके चरित्र की कमजोरियों को जान लेने के बाद भी, उनकी अनदेखी कर के उसे जीवनभर चाह सकती है। उसके साथ दाम्पत्य और आत्मीय प्रेम सम्बंधों का निर्वाह कर सकने में सफल हो सकती है।"

जबकि इसके ठीक विपरीत-

2. किन्हीं अपवादों को छोड़कर, एक सामान्य पुरुष, स्त्री की व्यवहारगत कमजोरियों, बुरी आदतों और उसके हलके चरित्र को कभी सहन नहीं कर सकता। बेशक उसे इसकी कितनी भी बड़ी कीमत क्यों ना चुकानी पड़े।

परिणामस्वरूप

3. स्त्री, पुरुष को चाहते हुए भी, अपने आप के बारे में बहुत कुछ छिपाने में खुद को पारंगत समझने लगती हैं। पुरुष भी अपनी संगिनी को विश्वास पात्र, वफादार, समर्पित और सद्चरित्र मानकर उस पर गर्व करने लगता है।

लेकिन

4. जिस दिन स्त्री की हकीकत पुरुष के सामने आती है, उन दोनों के जीवन बिखर जाते हैं। स्त्री के पास सुधार के लिए शेष कुछ नहीं बचता है।

और

5. पुरुष के पास जीवन जीने का कोई कारण नहीं बचता है।

दु:खद परिणिती-

6. परिवार बिखर जाते हैं। अनेक पुरुष नशे के आदि हो जाते हैं या आत्महत्या तक कर लेते हैं। मासूम बच्चों का जीवन बर्बाद हो जाता है। जो ज़िंदा रहते हैं-पल-प्रतिपल घुट-घुट कर जीने को विवश हो जाते हैं।

अत: अब जबकि सामाजिक और पारिवारिक मूल्य विखण्डित हो रहे हैं, जिन्हें सुधारवादी बदलाव कहते हैं। बेहतर और जरूरी है, बल्कि अपरिहार्य है कि-

7. स्त्री और पुरुष या प्रेमी-युगल इस बात को समझें कि समय और हालातों के अनुसार अपने सोचने और जीने के तरीकों और आदतों में यथासम्भव सजगता लाएं और अधिक सजग तथा पारदर्शी जीवन जियें। आपसी विश्वास खोकर एक साथ और एक छत के नीचे रहते हुए-

प्रेममय,
सजग
और
सफल
जीवन की कामना असम्भव है।

अंतिम बात-
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स्त्री और पुरुष दोनों का सोचने का ढंग मूल रूप से मनोसामाजिक एवं आनुवांशिक समाजीकरण का परिणाम है। जिसके लिये सम्पूर्ण रूप से उनको दोषी नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन आज जबकि हम हर एक क्षेत्र में बदल रहे हैं। बदलने को तत्पर हैं। ऐसे में यह अपेक्षा की जाती है कि—
''एक दूसरे के प्रति-सम्मान का भाव, निष्ठा, विश्वास, पारदर्शिता और निष्कपट स्नेह, दाम्पत्य के प्रेमरस की कुंजी एवं पुख्ता आधारशिला हैं। अत: यह निर्णय नितांत जरूरी है कि 'आज तक हम से जो हो चुका, सो चुका या जो खो चुका, सो खो चुका। अब उसका रोना छोड़कर या उसे दुस्वप्न की भांति भुलाकर शेष बचे जीवन को तो संभाला ही जा सकता है। क्योंकि वर्तमान ही सत्य है।'
नोट : आपको यह सन्देश व्यक्तिगत रूप से नहीं, बल्कि ब्रॉड कॉस्टिंग सिस्टम के जरिये भेजा गया है। अत: यदि आपको किसी भी प्रकार की आपत्ति हो तो, कृपया अवगत करावें। आगे से आपको ऐसा कोई सन्देश नहीं भेजा जायेगा।

शुभाकांक्षी और स्नेही
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/19.12.2015

Saturday 16 August 2014

जीवन का मतलब-Meaning of Life?

जीवन का मतलब जिन्दा होना मात्र नहीं है, बल्कि इच्छानुसार जीना है।

इस आसानी से समझी जा सकने वाली स्वाभाविक बात में भी भारतीय संस्कृति के स्वघोषित संरक्षकों को स्वच्छंदता नज़र आती है और उनकी स्वपरिभाषित भारतीय संस्कृति को खतरा महसूस होने लगता है। इस कारण "जीवन का मतलब जिन्दा होना मात्र नहीं है, बल्कि इच्छानुसार जीना है।" ऐसी सोच रखने वालों को समाज विरोधी घोषित करने में ये लोग पीछे नहीं रहते हैं। ऐसी सोच के ठेकेदार भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रति सर्वाधिक चिंतित दिखाई देते हैं। ऐसे में इन लोगों से पंगा लेने का मतलब है कि वे आपको कभी भी राष्ट्र विरोधी घोषित कर दें।

Sunday 13 July 2014

मौत और प्रेम

अपने किसी प्रिय की मौत, दिल में एक ऐसा दर्द छोड़ जाती है, जिसे कोई भी ठीक नहीं कर सकता है, जबकि प्रेम एक ऐसी मधुर स्मृति छोड़ देता है, जिसे कोई भी नहीं चुरा सकता। 
The death of someone dear, the pain leaves in the heart, that no one can heal, while Love leaves a sweet memory, that no one can steal.

Saturday 14 June 2014

फादर्स-डे : माता-पिता को अपने नहीं, उन्हीं के नजरिये से समझें।

जो अपने-अपने माता-पिता से स्नेह करते हैं, करना चाहते हैं या किसी कारण से अपने स्नेह को व्यक्त नहीं कर पाते हैं। उनको मेरी यही है राय-माता-पिता चाहे गुस्से में कितना भी कड़वा बोलें, चाहे आप पर कितना ही नाराज हो लें, मगर वे रोते हैं-अकेले में अपने बच्चों के लिये और बिना बच्चों के माता-पिता पंखहीन पक्षी होते हैं। बच्चे माता-पिता की आस, आवाज, तमन्ना, सांस और विश्‍वास होते हैं। बच्चे माता-पिता के बगीचे के फूल होते हैं। भला ऐसे में बच्चों के बिना कोई माता या पिता कैसे खुश या सहजता से जिन्दा भी रह सकता है? सच में यही है माता-पिता का सम्मान कि उनको अपने नहीं, उन्हीं के नजरिये से समझें।

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

15 जून को आधुनिक पाीढी का फादर्स-डे अर्थात् पितृदिवस है। बहुत सारी दुकानें पिताओं को दिये जाने वाले रंग-बिरंगे सुन्दर तथा आकार्षक कार्ड्स से सजी हुई हैं। दुकानों पर पिता की पसीने की कमाई से खरीदे गये ब्राण्डेड चमचमाते कपड़ों में सजे-धजे युवक-युवतियां अपने पिता को एक कागज का रंगीन टुकड़ा (कार्ड) खरीद कर पितृभक्त बेटा या बेटी होने का प्रमाण देने या अपने पिता को ये अहसास करवाने को कि हॉं उनको अभी भी याद है कि उनका एक पिता भी है, कार्ड खरीदने में अपने बॉय फ्रेण्ड या गर्ल फ्रेण्ड या दोस्तों के साथ मशगूल दिखाई देते हैं।

पहला दृश्य : बुढ्ढे लोग फादर्स डे की इम्पार्टेंस क्या जानें?
लड़की का बॉय फ्रेण्ड, श्रुति तुम भी पागल हो अपने खड़ूस पिता के लिये इतना मंहगा कार्ड सिलेक्ट कर रही हो?
श्रुति, देखो बंटी कम से कम आज तो मेरे फादर को कुछ मत बोलो। माना कि मेरे फादर थोड़े कंजूस हैं, मगर तुम्हारी श्रुति को उन्होंने ही तो तुम्हारे लिये इतना बड़ा किया है।
बंटी, ठीक है जल्दी करो कोई सस्ता सा कार्ड खरीद लो वैसे भी बुढ्ढे लोग फादर्स डे की इम्पार्टेंस क्या जानें?
दूसरा दृश्य : तुम्हारे डैड ने नयी बाइक दिला दी तो फादर्स डे के कार्ड की कीमत मैं दूंगी।
मोहित, प्रीति जरा मेरी मदद करो आज फादर्स डे है, कोई ऐसा सुन्दर सा कार्ड छांटने में मेरी मदद करो, जिसे देखकर मेरे डैड खुश हो जायें और मुझे नयी बाइक के लिये रुपये दे दें।
प्रीति, फिर तो मजा आ जायेगा। यदि तुम्हारे डैड ने नयी बाइक दिला दी तो फादर्स डे के कार्ड की कीमत मैं दूंगी।
तीसरा दृश्य : जब तक कर्जा अदा ना कर दूं मेरा बीस लाख का मकान आपके यहां गिरवी रहेगा।
सेठ जी मेरे बेटे का डॉक्टरी की पढाई के लिये एडमीशन करवाना है, जिसके लिये मेरे मकान को गिरवी रख लो, मगर मुझे हर महिने बेटे को भेजने के लिये जरूरी रकम देते रहना। मैं सूद सहित आपके कर्जे की पाई-पाई अदा कर दूंगा। जब तक कर्जा अदा ना कर दूं मेरा बीस लाख का मकान आपके यहां गिरवी रहेगा।
चौथा दृश्य : मैं भी इस बार नये कपड़े नहीं बनवाऊंगा, लेकिन बच्चों को जरूर अच्छे स्कूल में पढने डालेंगे।
पत्नी, देखोजी अपने बच्चे स्कूल जाने लायक हो गये हैं। इनको किसी ठीक से स्कूल में पढाने के लिये जुगाड़ करो।
पति, मेरे पास इतने रुपये कहां हैं, मुश्किल से पांच-छ: हजार रुपये कमा पाता हूं। डेढ हजार तो मकान किराये में ही चले जाते हैं। बाकी से घर का खर्चा ही मुश्किल से चलता है।
पत्नी, कोई बात नहीं मैं झाड़ू-पौछा किया करूंगी, लेकिन बच्चों को जरूर अच्छे से स्कूल में पढाना है। हम तो नहीं पढ सके मगर बच्चों के लिये हम कुछ भी करेंगे।
पति, ठीक है तू ऐसा कहती है तो मैं भी इस बार नये कपड़े नहीं बनवाऊंगा, लेकिन बच्चों को जरूर अच्छे स्कूल में पढने डालेंगे।
तीन सौ पैंसठ दिन कुछ भी करें, मगर एक दिन अपने कर्त्तव्यों की औपचारिकता पूरी करके अपराधबोध से मुक्ति पायी जा सके : यद्यपि भारत जैसे देश में माता-पिता दिवस की कभी कोई परम्परा नहीं रही। भारत में माता और पिता द्वारा अपनी सन्तानों के लिये तथा सन्तानों द्वारा अपने माता-पिता के लिये किये गये त्याग और बलिदान के ऐसे-ऐसे उदाहरण मौजूद हैं, जो संसार में अन्यत्र कहीं भी नहीं मिल सकेंगे। लेकिन अब ये सब इतिहास की बातें या आज की पीढी की नजर में खोखली बातें हो चुकी हैं। आज की पीढी का गुरू तो गूगल है और सलाहकार उनके मित्र-साथी। जिनमें से अधिकतर पश्‍चिम की सभ्यता से प्रभावित और प्रेरित हैं। इसीलिये आज के दौर में माता-पिता दिवस, मित्र दिवस, आदि अनेक नये-नये दिवस ईजाद कर लिये गये हैं। जिससे कि तीन सौ पैंसठ दिन कुछ भी करें, मगर एक दिन अपने कर्त्तव्यों की औपचारिकता पूरी करके अपराधबोध से मुक्ति पायी जा सके। हॉं हमारे देश में मातृ-ॠण और पितृ-ॠण को चुकाने की परम्परा अवश्य शुरू से रही है।

बिन माँ के बच्चे मॉं के आलिगंन को तरसते-तड़पते और सब के बीच भी सबसे कोसों दूर नजर आते हैं : मातृ-ॠण को तो आज तक कोई चुका ही नहीं पाया और किसी भी शास्त्र में मातृ-ॠण से उॠण होने का कोई उपाय नहीं है। हॉं ये जरूर कहा गया है कि मातृ-सेवा, मातृ ॠण से कुछ सीमा तक उॠण होने का एक सुगम मार्ग है। माता तो वो दिव्य शक्ति, वो अनौखी मूरत होती है जो बच्चों के लिये सब कुछ होती है। फिर भी बहुत सारे बच्चे ऐसे हैं जो अपनी मॉं को नहीं समझ पाते हैं। बहुतों को माता का आलिगंन, प्रेमभरा स्पर्श और मॉं का आशीष कैसा होता है, ज्ञात ही नहीं होता। उनके होश संभालने से पहले ही मॉं जुदा हो चुकी होती हैं। बहुत सारे बच्चे मेरे बच्चों जैसे होते हैं, जिनकी मॉं अपना निश्छल प्यार लुटाकर अधबीच में ही दुनिया से विदा हो चुकी होती हैं। ऐसे में बच्चे गुमसुम, सहमे-सहमे, भर्राये गले से चाहकर भी जी भरकर रो नहीं सकने वाले, अविकसित पुष्प जैसे, अधखिले यौवन की दहलीज पर मॉं के आलिगंन को तरसते-तड़पते और सब के बीच भी सबसे कोसों दूर नजर आते हैं।  

बिना पत्नी के योगदान के कोई पिता अपने बच्चों की नजर में एक सफल पिता नहीं बन सकता : जब बच्चों के सिर से मॉं का साया छिन जाता है तो ऐसे बच्चों के पिता की जिम्मेदारी कई गुना बढ जाती है, मगर अकसर पिता अपने आप को कदम-कदम पर नि:सहाय पाते हैं। बच्चे जो अपनी मॉं के सामने अपनी हर छोटी बड़ी उलझन या मन की व्यथा या गुथ्थी को सहजता खोल कर रख देते थे, वही बिन मॉं के बच्चे अपने पिता के सामने अपने दर्द, जरूरत या अपने मन की उलझनों को खोलकर बताना तो दूर, दिनोंदिनों अधिक और अधिक उलझते जाते हैं। एक पिता कितना ही प्रयास करे वो कभी मॉं नहीं बन सकता। बच्चों की मॉं छिन जाने के बाद एक पिता बेशक दोहरे कर्त्तव्यों का निर्वाह करने का प्रयास करे, मगर वह हर कदम पर खुद को असफल ही पता है। न वह पिता रह पाता है और न हीं वह बच्चों की मॉं के अभाव को कम कर पाता है। सच तो यह है कि एक पिता को पिता बनाने में भी उसकी पत्नी का अहम योगदान होता है। बिना पत्नी के योगदान के कोई पिता अपने बच्चों की नजर में एक सफल पिता नहीं बन सकता। उसे पितृत्व का निर्वाह करने के लिये हर कदम पर पत्नी के सहारे की अनिवार्यता होती है। ऐसे में बिना पत्नी के मॉं बनना तो बहुत दूर एक पिता बने रहना भी केवल चुनौती ही नहीं, बल्कि असम्भव हो जाता है!

कोई भी पिता अपने बच्चों को जिन्दीभर की कमाई को खर्च करके भी ऐसा तौहफा खरीदकर नहीं दे सकता जो उनकी मॉं का स्थान ले सके : हॉं मैंने अपनी पत्नी के देहावसान के बाद कदम-कदम पर इस बात को अवश्य अनुभव और महसूस किया है कि बच्चों की दृष्टि में माता के बिना घर केवल मकान है और पत्नी के बिना, पति का जीवन वीरान है। सबसे बड़ी बात ये कि कोई भी पिता अपने बच्चों को जिन्दीभर की कमाई को खर्च करके भी ऐसा तौहफा खरीदकर नहीं दे सकता जो उनकी मॉं का स्थान ले सके। मैं यह भी खुले हृदय से स्वीकार करता हूँ कि बहुत कम पति-पत्नी इस बात को जानते हैं कि वे अपने जीवन-साथी को उसकी अच्छाईयों और कमियों के साथ हृदय से स्वीकार करके पूर्णता से आपस में प्यार करें तो वे अपने बच्चों को अपनी जिन्दगी का सबसे अमूल्य तौहफा दे सकते हैं। ऐसा करने के बाद बच्चों के दिल में माता-पिता के प्रति कभी न समाप्त होने वाला अपनत्व का झरना सदैव स्वत: ही फूटता रहता है।

जो पुत्र अपने माता-पिता की सेवा, आदर-सम्मान के साथ नहीं करता, वह चाहे जो भी हो नरक को प्राप्त होगा : जहॉं तक पितृ ॠण की बात है तो श्रीमद् भागवत कथा ज्ञान यज्ञ के दौरान भागवत मर्मज्ञ गोस्वामी गोविंद बाबा मथुरावासी ने श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि पुत्र अपने माता-पिता के ॠण से कभी उॠण नहीं हो सकता। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अपने माता-पिता से यही कहा है। जो पुत्र अपने माता-पिता की सेवा, आदर-सम्मान के साथ नहीं करता, वह चाहे जो भी हो नरक को प्राप्त होगा।

पितृ-ॠण तीसरा ॠण, पिता को दूसरे गुरु का दर्जा : जहां तक भारतीय धर्म-संस्कृति की बात करें तो पितृ-ॠण को सन्तान पर, विशेषकर पुत्रों पर तीसरा ॠण बताया गया है। कहा गया है पितृ हमें सुयोग्य बनाते हैं। हम भी भावी सन्तान को सुयोग्य बनावें। भावी पीढ़ी के उचित निर्माण के लिए ध्यान न दिया जायेगा, तो भविष्य अन्धकारमय बनेगा। यही नहीं पितृ का अर्थ गुरु भी कहा गया है। पिता को सन्तान का माता के बाद दूसरे गुरु का दर्जा प्राप्त है।

पितृ ॠण शीर्षक से मैंने श्री राजेश्‍वर नामक एक लेखक की एक कविता पढी थी, जिसका उल्लेख किये बिना फादर्स डे की यह चर्चा अधूरी ही रहेगी। श्री राजेश्‍वर जी लिखते हैं कि- 
कैसे उतारेगे पितृॠण, यह समझ में ना आये!
कहां ढूंढे उन्हें हम, जिन्होंने जीवन के पहले पाठ पढ़ाये?
जब तक वो थे, ना कर सके मन की बात!
आज वो दूर हैं, तो ढूंढ रहे हैं दिन रात!!
हाथ पकड़ कर जिन्होंने हमें था चलना सिखाया!
आज नहीं रही है, हमारे उपर उनकी छत्रछाया!!
कितना कुछ कहना सुनना था, सब रह गयी अधूरी बात!
अब तो केवल सपनों में, होती है मुलाकात!!
जीवन भर संघर्ष करके, दिया हमे सुख सुविधा आराम!
अपने सपनों में खोये रहे हम, आ ना सके आपके काम!!
ईश्‍वर से है यही प्रार्थना, कर ले वो आपका उद्धार!
आपके चरणों की सेवा, का अवसर मिले मुझे बार बार!!
हर जनम में मिले बाबूजी, केवल आपका साथ!
पथ प्रदर्शक बन के पिता, आप फिर थामना मेरा हाथ!!
आपकी तपस्या व साधना, नहीं हो सकती है नश्‍वर!
अमर करेगा इस नाम को देकर पितृॠण राजेश्‍वर!!
चाहे आप पर कितना ही नाराज हो लें, मगर वे रोते हैं-अकेले में अपने बच्चों के लिये और बिना बच्चों के माता-पिता पंखहीन पक्षी होते हैं। बच्चे माता-पिता की आस, आवाज, तमन्ना, सांस और विश्‍वास होते हैं।बच्चे माता-पिता के बगीचे के फूल होते हैं। भला ऐसे में बच्चों के बिना कोई माता या पिता कैसे खुश या सहजता से जिन्दा भी रह सकता है? : अन्त में उन सभी को जो अपने-अपने माता-पिता से स्नेह करते हैं, करना चाहते हैं या किसी कारण से अपने स्नेह को व्यक्त नहीं कर पाते हैं। उनको मेरी यही है राय-माता-पिता चाहे गुस्से में कितना भी कड़वा बोलें, चाहे आप पर कितना ही नाराज हो लें, मगर वे रोते हैं-अकेले में अपने बच्चों के लिये और बिना बच्चों के माता-पिता पंखहीन पक्षी होते हैं। बच्चे माता-पिता की आस, आवाज, तमन्ना, सांस और विश्‍वास होते हैं। बच्चे माता-पिता के बगीचे के फूल होते हैं। भला ऐसे में बच्चों के बिना कोई माता या पिता कैसे खुश या सहजता से जिन्दा भी रह सकता है? सच में यही है माता-पिता का सम्मान कि उनको अपने नहीं, उन्हीं के नजरिये से समझें।


अन्त में आज के दौर के पिता-पुत्र के रिश्तों की हकीकत एक बुजर्ग के के लफ्जों में : 
‘‘एक जमाना था, जब हमारे पिता हमें अपनी गलती बताये बिना हमारे गालों पर तड़ातड़ थप्पड़ जड़ दिया करते थे। हम खूब रो लेने के बाद अपने पिता के सामने बिना अपना अपराध जाने हाथ जोड़कर माफी मांग लेते थे। पिता फिर भी गुस्से में नजर आते थे। हॉं रात को मॉं बताती थी कि बेटा तुमको पीटने के बाद तुम्हारे बाबूजी खूब रोये थे। जबकि आज हालात ये है कि बेटा बिना कोई कारण बताये अपने पिता को खूब खरी-खोटी सुना जाता है और अपनी पत्नी के साथ घूमने निकल जाता है। शाम को पिता अपने बेटे के समक्ष नतमस्तक होकर बिना अपना गुनाह जाने माफी मांगता है, लेकिन बेटा पिता से कुछ बोले बिना उठकर पत्नी और बच्चों के साथ जा बैठता है। लेकिन पौता ये सब देख रहा है और सूद सहित अनुभव की पूंजी एकत्रित कर रहा है।’’

Wednesday 2 April 2014

स्त्री और पुरुष का रिश्ता शरीर, मन, दिल और आत्मा का मार्ग पूरा करने से पहले ही मर जाता है।

एक स्त्री और पुरुष का रिश्ता शरीर, मन, दिल और आत्मा के मिलन का होता है, मगर शरीर से आत्मा तक पहुँचने का मार्ग दुरूह है। बहुतों को तो मन और दिल में भेद ही नहीं पता! कितने जन्मते और मर जाते हैं, मगर शरीर से आगे का रास्ता तय ही नहीं कर पाते। कारण चाहे जो भी रहे हों या रहते हों, मगर सच यही है। एक विवाहित पुरुष और स्त्री के शरीर का सम्बन्ध तो काम तृप्ति और प्रजनन की जरूरत है। जिसे मन संचालित करता है, हाँ ये भी सच है कि कभी मन काम से और कभी काम मन से संचालित होते हैं। यदा-कदा दिल के रास्ते भी शरीर का मिलन होता है। स्त्री-पुरुष के रिश्ते-काम तृप्ति की भौतिक जरूरत के इर्द-गिर्द ही घूमते रहते हैं। जिनमें शरीर की जरूरत की मुख्यता या प्रधानता होती है। यह भी निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि किसी भी सामान्य स्त्री और पुरुष के रिश्ते में दोनों के मध्य कमोबेश एक दूसरे के लिए प्रकृतिदत्त विपरीत लिंग का आकर्षण अवश्य होता है। जिसे अनेक या ज्यादातर अविवाहित या विवाहेत्तर सम्बन्धों में लिप्त लोग अनाम या छद्म नामों की आड़ में छिपाने या ढकने के असफल प्रयास करते रहते हैं। किन्ही अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ऐसे रिश्तों का अंतिम लक्ष्य और, या अंतिम परिणाम शारीरिक सम्बन्ध ही होता है। यह एक कड़वा सच है कि परिवार के नजदीकी रक्त संबंधों को छोड़कर किसी भी स्त्री और पुरुष के बीच बनने वाले गहन रिश्ते बिना संसर्ग के नीरस, खोखले, रिक्त और अधूरे होते हैं। जिनके सुफल बहुत कम देखे जा सकते हैं! बेशक ऐसे रिश्ते कुछ समय बाद टूट जाएँ या उन रिश्तों की गर्माहट कुछ समय बाद ठंडी या कम हो जाये, लेकिन शरीर के मिलन के बाद ही उन रिश्तों का दोनों के लिए कोई मतलब होता है। जो आकर्षक या युवा जोड़े अपने मधुर रिश्तों को दुनिया के सामने सिर्फ दोस्ती तक सीमित बतलाते हैं, उनमें से किन्ही अपवादों को छोड़कर सौ फीसदी झूठ बोलते हैं। जिसके लिए समाज की अनचाही बंदिशें जिम्मेदार हैं। यही कारण है कि स्त्री और पुरुष का रिश्ता शरीर, मन, दिल और आत्मा का मार्ग पूरा करने से पहले ही मर जाता है।

Monday 27 January 2014

औरत और मर्द के बीच नफरत और विभेद की दीवार

किसी भी ऐसी विषय-वस्तु को प्रकाशित और या प्रसारित करना, जिसे पढ़कर कोई भी आम औरत और मर्द के बीच वैमनस्यता, नफरत और विभेद की दीवार खड़ी या अधिक पुख्ता हो, क्या ऐसा करना उपयुक्त और न्यायसंगत है? क्या यह हर एक संपादक और लेखक के लिये गम्भीरता पूर्वक विचारणीय विषय नहीं?

Sunday 26 January 2014

तात्कालिकता से प्रभावित हो तत्काल प्रतिक्रिया

ज्वलंत विषय की विषयवस्तु के तात्कालिक प्रभाव से प्रभावित होकर और उसको अंतिम सत्य मानकर तत्काल प्रतिक्रिया व्यक्त करके भ्रम पालने से बेहतर होगा कि कुछ समय रुककर सोचा जाए। फिर अपने विचार व्यक्त किये याएं तो हम अधिक परिपक्व प्रतिक्रिया व्यक्त कर पाएंगे।

Wednesday 25 December 2013

नियति को स्वीकार कर लेना क्या पौरुषहीनता है?

मनुष्य भरसक प्रयास करता है और अपने आचरण में ईमानदारी भी बरतता है, लेकिन फिर भी यदि हालात नियंत्रण से बाहर हो जाएँ या बाहरी कारणों से लड़ना मुश्किल या असम्भव हो जाये तो ऐसे में-"यथास्थिति को स्वीकार कर लेना या हालातों से लड़ना"-सही मार्ग कौनसा है? समझ में नहीं आता तो इंसान बुरी तरह से परेशान हो जाता है और तनाव तथा मानसिक दबावों से ग्रसित हो जाता है। ऐसे में अपने हालातों को नियति का निर्णय मानकर स्वीकार कर लेना क्या पौरुषहीनता है?

Thursday 19 December 2013

Sunday 15 December 2013

"आत्मा की आवाज़" बनाम "लोग क्या कहेंगे?"

दुनिया के सामने दिखावा अधिक जरूरी है या अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर उसे मानना और उस पर अमल करना? यह एक ऐसा ज्वलंत सवाल है, जिसका उत्तर सौ में से निन्यानवें लोग यही देना चाहेंगे कि अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर उसे मानना और उस पर अमल करना ज्यादा जरूरी है, लेकिन अपनी आत्मा की विवेक-सम्मत आवाज़ को सुनकर भी उस पर अमल बहुत ही कम लोग करते हैं।

आखिर ऐसा क्यों होता? इस बारे में मेरा मानना कि बचपन से, जब से हम प्रारम्भिक और प्राथमिक स्तर पर सोचना-समझना शुरू करते हैं, घर-परिवार में हर जगह हमें कदम-कदम पर यही सिखाया जाता है और यही सुनने को मिलता है कि ऐसा मत करो वैसा मत करो नहीं तो "लोग क्या कहेंगे?" अर्थात ये नकारात्मक वाक्य हर दिन और बार-बार सुनते रहने के कारण हमारे अवचेन मन में गहरे में नकारात्मक रूप से ऐसा स्थापित हो जाता है कि हम इसके विपरीत किसी सकारात्मक बात को चाहकर भी सुनना नहीं चाहते। खुद अपनी आवाज़ को भी नहीं सुन पाते हैं, अपनी आवाज़ को भी अनसुना कर देते हैं!

इसके दुष्परिणाम स्वरुप हम हर समय असंतुष्ट और परेशान रहने लगते हैं। हमें अपना घर संसार निरर्थक और नीरस लगने लगता है। हम अपनी आंतरिक खुशी बाहरी दुनिया और भौतिक साधनों में तलाशने लगते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि हमारी सच्ची और स्थायी खुशी अपने आप के अंदर ही विद्यमान रहती है। क्योंकि-"आंतरिक खुशी ही तो असली खुशी है।" इसे जानते-समझते हुए भी हम सिर्फ और सिर्फ बाहर की दुनिया में वो सब तलाशते रहते हैं, जिसकी प्राप्ति भी हमें अपूर्ण ही बनाये रखती है और इस अपूर्णता को तलाशने में हम अपना असली खजाना अर्थात अपनी जवानी, उम्र और अमूल्य समय लुटाकर हमेशा को कंगाल हो चुके होते हैं।

इस सच्ची बात का ज्ञान होने तक जबकि हम अपना जीवन बाहरी खोज और भौतिकता में गँवा चुके होते हैं, हम इतने थक चुके होते हैं, इतने निराश हो चुके होते हैं कि हम कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं रह पाते हैं, बल्कि इस बात का जीवन भर पछतावा होता रहता कि हम निरर्थक कार्यों में अपनी जवानी, उम्र और अमूल्य समय लुटा चुके हैं। इस पछतावे में भी हम जीवन के शेष बचे अमूल्य समय को रोते बिलखते बर्बाद करते रहते हैं। हम ये दूसरी मूर्खता, पहली वाली से भी बड़ी मूर्खता करते हैं। जिससे अंतत: अधिकतर लोग तनाव तथा अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं। 

इसलिये ऐसे हालात में हमें हमारे पास जो कुछ-समय और जीवन शेष बचा है, उसका बेहतर से बेहतर सदुपयोग करना चाहिए और अपने जीवन को संभालना चाहिए यही सबसे बड़ी समझदारी है। जिसके लिए पहली जरूरत है कि हम सबसे पहले तो इस बात को भुला दें कि-"लोग क्या कहेंगे?" दूसरी बात ये कि हम खुद की जरूरतों का और वास्तविकताओं का आकलन करें फिर पहली बात के साथ ही साथ हम ऐसा कोई अनुचित काम भी नहीं करें, जिससे हमारी खुद की या अन्य किसी की शांति भंग हो। यही जीवन जीने का वास्तविक किन्तु कड़वा सच है।-Saturday, 14 December 2013

Saturday 14 December 2013

खुद का अनुभव-Own Experience

इंसान जितना अपने खुद के अनुभव से सीखता है, उतना दूसरों के अनुभव से सीखना असम्भव है। क्योंकि खुद के अनुभव के साथ एक-एक पल याद रहता है, जो उसके अवचेतन में छप जाता है। जबकि दूसरों की बातें या उनके अनुभव पढ़ने या सुनने वाले को कहानी-किस्से जैसे लगते हैं। जिन्हें अन्य बातों की तरह कुछ समय बाद इंसान स्वाभाविक रूप से भूल जाता है।-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

Tuesday 19 November 2013

वास्तविक सवाल अनुकूल या मनपसन्द साथी पाने का नहीं, अपने अनुकूल बनाने का है।

जब दो अनजान स्त्री-पुरुष पति-पत्नी बन जाते हैं, तो उनका अपने साथी के बारे में यह सोचना बहुत बड़ी भूल है कि उनका साथी, उसके लिये उसकी कल्पनाओं, सपनों और इच्छाओं के अनुकूल, यानी सौ फीसदी उनकी मनपसन्द है और रहेगा। इस भूल के कारण दुनिया में लाखों हृदय घायल पड़े हैं और उनके दाम्पत्य जीवन बुरी तरह से बिखर गये हैं। जबकि वास्तविक सवाल अनुकूल या मनपसन्द साथी पाने का नहीं, अपने अनुकूल बनाने का है। जिसका तरीका है-हम अपने साथी की कुछ बातों को मान लें, कुछ को बदल लें और कुछ बातों को सह लें।

Wednesday 21 August 2013

जीवन का मतलब-The Meaning of Life

जीवन का मतलब जिन्दा होना मात्र नहीं है, बल्कि इच्छानुसार जीना है।-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

Sunday 21 July 2013

आज का काम आज-Today's Work Today

अगर आपको किसी आसान या थोड़े से भी मुश्किल काम को असम्भव बनाना हो तो आप उसे कल पर टालते रहें। आज के काम को कल पर टालने वालों को बुढापे के साथ पछतावा जरूर मिलता है। इसलिये सदैव याद रखें कि आज का एक दिन कल के एक महिने से अधिक कीमती है। यदि यह तय है कि पहाड़ पर चढना ही है तो यह मत सोचो कि इन्तजार करने से पहाड़ छोटा हो जायेगा।-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

Friday 21 June 2013

सतीत्व-Chastity

सतीत्व

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

मैं लम्बे समय से दाम्पत्य सलाहकार के रूप में जरूरतमंदों को अपनी सेवाएँ प्रदान करता रहा हूँ। जिससे प्राप्त अनुभवों को मैं विभिन्न सन्दर्भों में व्यक्त करता रहता हूँ! इसी कड़ी में यहाँ कुछ विचार व्यक्त हैं:-

हमारे देश में आदिकाल से सतीत्व को स्त्री का आभूषण माना जाता रहा है। जबकि इसके विपरीत पुरुषों को अनेक स्त्रियों के साथ सम्बन्ध बनाते देखा, सुना और पढ़ा तो मन में ये सवाल उठता रहा कि आखिर ये सतीत्व का आभूषण सिर्फ स्त्रियों के लिए ही क्यों बनाया गया है?

बाद में अध्ययन और व्यवहार से समझ में आने लगा कि स्त्री के मन को आदिकाल से हम पुरुषों द्वारा जिस चालाकी से प्रोग्रामिंग किया गया, उसमें स्त्री के लिए अपने सतीत्व की रक्षा को उसके सम्मान का पैमाना बना दिया गया। इस कारण स्त्री के लिए सतीत्व की रक्षा, अपरिहार्य बन गयी। जिसके लिये स्त्री को खुशी-खुशी मृत पति के शव के साथ-साथ सती होने या जौहर तक के लिये तैयार कर लिया!

कालांतर में इसके उपरांत भी जिन स्त्रियों को स्त्री-पुरुष के इस विभेद की पीड़ा सालने लगी, उसने इस विभेद का प्रतिकार करने का साहस किया और स्त्री खुद भी पुरुषों की भांति गैर मर्दों से रिश्ते बनाने लगी, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से ऐसी स्त्री को सार्वजानिक रूप से उन स्त्री पुरुषों ने ही सर्वाधिक लांछित और अपमानित किया, जिनका खुद का चरित्र निष्कलंक नहीं था।

ऐसे में स्त्री सतीत्व, स्त्री के लिए आभूषण के बजाय विवशता बन गया! जिसे स्त्री ने लम्बे समय तक ढोंग और झूठ के सहारे ढोया और पुरुष के अहंकार को पुष्ट करने का भरसक प्रयास किया। लेकिन यदाकदा इसमें स्त्री असफल होती रही। स्त्री को अनेक बार विवाह पूर्व या पति के परदेश चले जाने पर भी गर्भवती हो जाने पर सामाजिक तिरष्कार के कारण मौत तक को गले लगाना पड़ा। जिससे स्त्री को मुक्ति दी विज्ञान ने, क्योंकि विज्ञान ने स्त्री को वो साधन उपलब्ध करवाये, जिनके बल पर स्त्री स्वयं इस बात का निर्णय करने में समर्थ और सक्षम हो गयी कि वो जब तक नहीं चाहेगी, अनचाहे गर्भ के कलंक से मुक्त रहकर पुरुष की ही भांति मनचाहे रिश्ते बना सकेगी। आज तो स्त्री यौनिछिद्र एवं कुमारी की प्रतीक झिल्ली तक को फिर से रिपेयर करवाने लगी हैं!

परिणाम ये हुआ कि न केवल स्त्री भी पुरुष की भांति व्यभिचारिणी हो गयी है, बल्कि अनेक स्त्रियाँ पुरुषों से भी से भी बहुत आगे निकल गयी। हमारा सामाजिक तानाबाना भी इस प्रकार का है कि पुरुष की तुलना में स्त्री के पास पुरुषों को लुभाने के अधिकाधिक अवसर हैं, अधिक उपयुक्त और कड़वा सच तो ये है कि स्त्री के पास मनचाहे अवसर हैं! जिसके चलते आज स्त्री विवाह से पूर्व और विवाह के बाद भी लगातार यौन-साथी बदलती रहती है।

जब किसी वजह से ये सम्बन्ध उजागर होते हैं तो कुछ तो आत्महत्या कर लेती हैं और कुछ तलाक मांग लेती हैं, जबकि अनेक नव विवाहिता दहेज़ उत्पीडन का मामला दर्ज करा देती हैं! आज की पीढी के पुरुषों को, स्त्री के साथ पुरुषों के पूर्वजों द्वारा आदिकाल से किये जाते रहे विभेद की सजा मिल रही है। इसके उपरांत भी ये कतई भी नहीं समझा जाना चाहिए कि आज का पुरुष मासूम या निर्दोष है। 

हालाँकि अभी भी समाज में ऐसे स्त्री और पुरुष हैं जो अपने चरित्र और आचरण की पवित्रता को सबकुछ समझते हैं, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या नगण्य है!

Monday 17 June 2013

उम्र-Age

उम्र एक छलावा है, मनुष्य अपने मन और सोच की उम्र का होता है!

Saturday 8 December 2012

झूँठन

जो लोग सम्मान के साथ परोसी हुई भोजन की थाली को ठुकराते हैं, उनके जीवन में ऐसा समय भी आ सकता है कि उन्हें दूसरों की ठुकराई हुई झूँठन के लिए भी तरसना पड़े!

Friday 21 September 2012

मारता है, हर पल-Kills, every moment

"प्यार नहीं मारता"
बस
"मारता है, हर पल"
जुदाई का अहसास!
हमेशा को खो देने का दर्द और
फिर न पा सकने का अफ़सोस!
"मारता है, हर पल"

"Love not Kills"
Only
"Kills, every moment"
Feeling of separation!
The pain of losing forever
Again, sorry for being unable to obtain!
"Kills, every moment"

Saturday 25 August 2012

बोलना-Speak


इंसान को बोलना सीखने में तीन साल लगते हैं,
लेकिन क्या बोलना चाहिए, ये सीखने में पूरी जिन्दगी बीत जाती है!

Person takes three years to learn to speak,
But what to say, they are learning through the entire life!

Thursday 16 August 2012

बूढ़े होकर भी हम, बूढ़े होने का इंतजार करते रहते हैं! लेकिन वृद्ध होने तक हमारा सब कुछ समाप्त हो चुका होता है!

मनुष्य जन्म लेने के दिन से ही बूढ़ा होना शुरू हो जाता है, बल्कि जन्म के साथ ही मृत्यु की भी शुरूआत हो जाती है! जिसे जानकर भी हम समझते नहीं हैं! अनजान बने रहने का भ्रम पाले रहते हैं! बूढ़े होकर भी हम, बूढ़े होने का इंतजार करते रहते हैं! दुखद आश्चर्य तो यह है कि हम जब तक अपनी खुद की नजरों में बूढ़े नहीं हो जाते हैं, तब तक हम खुद को वृद्ध नहीं मानते, लेकिन तब तक इतनी देर हो चुकी होती है कि हमारा सब कुछ समाप्त हो चुका होता है!

Tuesday 12 June 2012

भावनात्मक एवं सकारात्मक सहारे की जरूरत!

परेशान और दुखी औरत को एक सकारात्मक व्यक्ति का सन्देश जो उस औरत को अपनी पत्नी बनाने के लिए उसके संपर्क में आया!

"शायद आपको भावनात्मक एवं सकारात्मक सहारे की जरूरत है! इसलिए अब मेरा लक्ष्य यह नहीं है, कि आप मेरी पत्नी बने, बल्कि मैं आपको एक जिंदादिल और मजबूत स्त्री के रूप में देखना चाहता है! कृपया इसमें मेरी मदद करें! जिससे मैं ऐसा कर सकूँ! लेकिन आपके सहयोग के बिना यह संभव नहीं!"

"Perhaps you need emotional and positive support! So now my goal is not that you became my wife, but I want to see as a lively and strong woman to you! Please help me to do it! But it is not possible without your support!"

Wednesday 9 May 2012

प्यार, अपनापन, विश्वास और सम्मान

प्यार, अपनापन, विश्वास और सम्मान दुनिया के किसी भी बाज़ार में नहीं बिकते! अत: इन्हें कोई खरीद नहीं सकता! इन्हें पाने के लिए, पाने वाले में भी इन्हीं गुणों का विद्यमान होना जरूरी है! जैसे-प्यार पाना है तो प्यार कीजिए! किसी का अपनापन चाहिए तो किसी को अपना बना लीजिये! विश्वास पाना है तो किसी पर विश्वास कीजिए! और सम्मान हासिल करना है तो दूसरों को सम्मान दीजिये!

Thursday 8 March 2012

सत्संग : शान्ति के साथ सच्चे-सुख और स्वास्थ्य की प्राप्ति!

बहुत कम लोग जानते हैं कि कोई भी व्यक्ति अपने आपका निर्माण खुद ही करता है! हम प्रतिदिन अपने परिवार, समाज और अपने कार्यकलापों के दौरान बहुत सारी बातें और विचार सुनते, देखते और पढ़ते रहते हैं, लेकिन जब हम उन बातों और विचारों में से कुछ (जिनमें हमारी अधिक रुचि होती है) को ध्यानपूर्वक सुनते, देखते, समझते और पढ़ते हैं तो ऐसे विचार या बातें हमारे मस्तिष्क में अपना स्थान बना लेती हैं! जिन बातों और विचारों के प्रति हमारा मस्तिष्क अधिक सजग, सकारात्मक और संवेदनशील होता| जिन बातों और विचारों के प्रति हमारा मस्तिष्क मोह या स्नेह या लगाव पैदा कर लेता है! उन सब बातों और विचारों को हमारा मस्तिष्क गहराई में हमरे अन्दर स्थापित कर देता है! उस गहरे स्थान को हम सरलता से समझने के लिये "अंतर्मन" या "अवचेतन मन" कह सकते हैं! जो भी बातें और जो भी विचार हमारे अंतर्मन या अवचेतन मन में सुस्थापित हो जाते हैं, वे हमारे अंतर्मन या अवचेतन मन में सुस्थापित होकर धीरे-धीरे हमारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर अपना गहरा तथा स्थायी प्रभाव छोड़ना शुरू कर देते हैं! जिससे हमारे जीवन का उसी दिशा में निर्माण होने लगता है! 

विस्तार से पढने के लिए यहाँ क्लिक करें!

Wednesday 7 March 2012

सबसे गहरा रंग!

आज 07 मार्च, 2012 को  होली है! आज के दिन लोग एक-दूसरे को रंग लगाते हैं! नाचते गाते हैं! होली का रंग लोगों के तन बदन पर अपने निशान छोड़ जाते हैं, जो लम्बे समय तक याद रहते हैं! इसी कारण होली और होली के रंगों का मनुष्य के जीवन में बहुत महत्व बताया जाता है, लेकिन इन सब रंगों से गाढ़ा और गहरा रंग होता है, रिश्तों का रंग! जिस व्यक्ति के जीवन में रिश्तों का रंग है, उसके लिए हर एक दिन होली है और जिसके जीवन में रिश्तों का रंग नहीं है, उसके लिए दिखावटी होली के रंगों में कोई रस या गहराई नहीं है! सबसे गहरा और असरकारी रंग होता है-रिश्तों का आत्मीय रंग! जो आज के समय में बहुत ही कम लोगों को नसीब होता है!

Thursday 23 February 2012

सत्य, मन, विवेक और हृदय

वर्षों तक असत्य को सत्य मानकर अनुसरण करते रहने के बाद, यदि अचानक सत्य से मुलाकात हो जाये तो असत्य के साथ जीने का आदि हो चुका हमारा मन और विवेक दोनों, सत्य पर संदेह करने लगते हैं! हमारा अस्तित्व असत्य और सत्य के भ्रम में छटपटाने लगता है! ऐसे में मन और विवेक की चालाकियों से बाहर निकलकर या मन तथा विवेक के तर्कों से मुक्त होकर हृदय को अपनी मौन वाणी बोलने देने का अवसर देना होगा! तब सारे भ्रम, दुःख के अँधेरे और संदेह के बादल स्वत: ही छंट जायेंगे! उजाड़, सूखे और निराशा के गर्त में अवशाद ग्रस्त जीवन में भी आशा, उमंग और ताजगी का अहसास हिलोरें मारने लगेगा! जरूरत केवल इस बात की है की हम निर्लिप्त होकर अपने चालक मन तथा विवेक और कोमल हृदय की सत्य किन्तु मौन वाणी को समझने की समझ पैदा करें!-Wednesday, 22 February 2012

Wednesday 22 February 2012

अपना और सपना

जो कुछ भी हमारे पास है, वह अपना है!
जो हमारे पास नहीं है, वो सिर्फ सपना है!

सपने देखना बुरा नहीं, लेकिन सपनों के चक्कर में सचाई को नहीं भूलें! क्योंकि वर्तमान के धरातल पर ही सपनों की खेती की उपज की सम्भावना होती है!  

Monday 13 February 2012

मन और मस्तिष्क का अन्तरसम्बन्ध

हमारे मन और मस्तिष्क का अन्तर-सम्बन्ध अत्यन्त गहरा है। जिसके चलते जब भी हम मानसिक चिन्ता या तनावग्रस्त होते हैं, इसके साथ या तत्काल बाद हमें अनेक प्रकार की शारीरिक बीमारियॉं भी आ घेरती हैं। वैज्ञानिका प्रार्थना के जरिये हम ऐसी समस्याओं से छुटकारा पा सकते हैं।  

Sunday 12 February 2012

अनिश्चय

अनिश्चय की स्थिति इंसान को बुरी तरह से तोड़ देती है! न जीने देती है और न ही इंसान मर ही पता है! केवल और केवल, पल-प्रतिपल घुट-घुट कर मरना ऐसे इंसान की विवशता होती है!

Thursday 9 February 2012

वरदान


जीवन के दो सर्वोत्तम वरदान हैं : 
अच्छा स्वास्थ्य और अच्छी समझ| 

Sunday 25 December 2011

स्वजनों का महत्व!

प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू ने कहा है कि-

‘‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और
जो व्यक्ति समाज से अलग रहता है,
वह या तो पशु है या देवता।’’

अरस्तू के इस कथन में मनुष्य के सम्बन्ध में दो बातें अन्तर्निहित हैं-
1-पशु कोई बनना या कहलवाना नहीं चाहता और 
2-पूरी तरह से मनुष्य नहीं बन सकने वाले मानव के लिये देवता बनना आसान नहीं।

ऐसे में हर एक मनुष्य के लिये समाज का हिस्सा बने रहना जहॉं एक ओर सामाजिक जरूरत है, वहीं दूसरी ओर व्यक्ति की मानवीय जरूरतों पर दृष्टि डाली जाये तो भी हर एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से अन्तरंग सम्बन्ध स्थापित करना अत्यन्त जरूरी है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति दूसरों के बिना न तो खुशी या गुस्से को प्रकट कर सकता है और न हीं दु:खी होने पर स्वयं को अपने आपके गले लगा सकता है।

खुशी  और दु:ख में किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत होती है, जो आपको दु:ख से उबरने में सम्बल दे सके। साथ ही किसी के कंधे की जरूरत होती है, जिस पर सिर टिकाकर आप रो सकें। ये कुछ ऐसी बातें हैं, जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की आत्मीय जरूरत को कदम-कदम पर प्रमाणित करती हैं। इसके उपरान्त भी हम अपने स्वजनों की महत्ता को लगातार नकारते रहते हैं या उनकी उपेक्षा करते रहते हैं, लेकिन जब वक्त खराब आता है तो हर व्यक्ति को इन रिश्तों का महत्व अपने आप ही समझ में आ जाता है।

ऐसे में सवाल उठता है कि स्वजनों से आत्मीय सम्बन्ध बनाये रखने या आत्मीय सम्बन्धों में सजीवता बनाये रखने के लिये बुरे वक्त का इन्जतार क्यों किया जाये?

यदि हम अपने आज को ठीक से समझकर आज ही सही निर्णय लेंगे तो जहॉं एक ओर हमारा आने वाला कल सार्थक होगा, वहीं दूसरी ओर हमें अपने गुजरे कल को सम्पूर्णता से नहीं जी पाने का मलाल भी नहीं रहेगा। परन्तु जीवन को सम्पूर्णता से जीने के लिये जरूरी होता है कि सभी स्वजन आपस में एक दूसरे का महत्व हृदय से समझें। जो आज के समय में सबसे मुश्किल है।  

Friday 23 December 2011

निर्माण और विनाश

आप किसी से प्रेम करिये या नफ़रत करिये या अन्य कोई व्यवहार करें। आपके बाहरी प्रकट व्यवहार को दूसरे लोग बाद में देखते हैं और जो कुछ भी लोगों को दिखाई देता है, वह सब दिखने से पहले आपके अन्दर घटित होता है। अत: आपके द्वारा प्यार या नफरत या ईर्ष्या जिस किसी के प्रति या जिसके भी विरुद्ध प्रकट किये जाते हैं, उससे कहीं अधिक ये सब आपके अन्दर घटित होते हैं। क्योंकि इन सबका मूल कारण या भाव आपके मन और ह्रदय के अन्दर से पैदा होता है। इसलिए हमको विचार करना चाहिए कि हम आपने मन और हृदय में क्या उत्पन्न कर रहे हैं? साथ ही यह भी जानना और समझना चाहिए की जो कुछ हमारे अन्दर उत्पन्न हो रहा है, वह हमारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर कैसा प्रभाव छोड़ रहा है? इस प्रकार हम स्वयं ही अपना निर्माण और विनाश कर रहे हैं!

Thursday 22 December 2011

मन का सौन्दर्य

यदि तन सुंदर नहीं मिला तो इसके लिये पछताने के बजाय अपने मन को सुंदर और निर्मल बनाने के लिये प्रयास और अभ्यास करना, सदमार्ग की दिशा में कदम बढ़ाना है! दुःख तो इस बात का है की हम मन के बजाय तन के सौन्दर्य में ही उलझकर रह गये हैं, जो अनेक प्रकार की तकलीफों को जन्म दे रहा है!

Saturday 10 December 2011

समाज की संरचना का मकसद!

मैंने अनेक लोगों को भावनात्मक समझ के अभाव और नजदीकतम सम्बन्धियों की प्रताड़नाओं के कारण घुट-घुट कर पल-प्रतिपल मरते और अनेक मानसिक बीमारियों से तड़पते देखा है! क्या समाज की संरचना इस मकसद से की गयी होगी?  

Monday 5 December 2011

अपेक्षाओं के नीचे दबे लोग!

अधिकतर लोग अपनी-अपनी अपेक्षाओं के बोझ को ढो रहे हैं! उन्हें नहीं पता कि अपने दुखों का कारण वे स्वयं ही हैं! जब उनकी खुद की पाली हुई अपेक्षाएँ पूर्ण नहीं होती हैं तो वे, उन लोगों को अपना दुश्मन मान लेते हैं, जो उनकी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते हैं! इस प्रकार ऐसे लोग खुद को, अपने परिवार को और अपने संबंधों को बेमौत मार देते हैं!

Thursday 10 November 2011

समय की पाबंदी

बेशक समय की पाबंदी को आज की पीढी महत्त्व नहीं दे, लेकिन यदि हम समय के पाबंद हैं तो हम अपने जीवन का स्व और जनहित में सही और अधिकतम उपयोग कर सकते हैं!

Tuesday 8 November 2011

पूर्वाग्रही लोग!

पूर्वाग्रही लोग किसी की पीड़ा को नहीं समझ सकते! उन्हें वही दिखाई देता है, जो वे देखना चाहते हैं! ऐसे लोग भी दूसरों को सलाह देने से नहीं चूकते! यदि कोई इनकी सलाह मान ले तो उसका तो भगवान ही मालिक हैं!